________________ बावश्यकनियुक्तरव भगवतः तपोवर्णनं छअस्थकालं पूर्णिः // 295 // नि० गा० 532-538 गोचराभिग्रहयुक्तं क्षपणं, अव्यथितः, वत्सानगर्या-कौशाम्ब्यां // 531 // दस दो य किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं / अट्ठमभत्तण जई एक्केकं चरमराईयं // 532 // दश द्वे च द्वादशेत्यर्थः, स्थितवान्मुनिरेकरात्रिकी प्रतिमा, कथमित्याह अष्टमभक्तन यतिः प्रयत्नवानेकैकां चरमरात्रिकी चरमरात्रिनिष्पन्नां // 532 // दो चेव य छट्टसए अउणातीसे उवासिओ भगवं। न कयाइ निचभत्तं चउत्थभत्तं च से आसि॥५३३॥ उपोषितः॥५३३ // बारस वासे अहिए छ8 भत्तं जहण्णयं आसि / सवं च तवोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स // 534 // द्वादश वर्षाण्यधिकानि भगवतः छद्मस्थस्य सतः षष्ठं भक्तं जघन्यकमासीत् अपानकं, अयमर्थः-क्षीरादिद्रवाहारभोजनकाललभ्यव्यतिरेकेण पानकपरिभोगो नाऽऽसेवितः // 534 // पारणककालमानमाहतिण्णि सए दिवसाणं अउणावणं तु पारणाकालो / उकुडयनिसेजाणं ठियपडिमाणं सए बहुए // 535 // तथा उत्कुटुकनिषद्यानां स्थितप्रतिमानां शतानि बहूनि // 535 // पव्वजाए पढमं दिवसं एत्थं तु पक्खिवित्ता णं / संकलियंमि उ संते जं लद्धं तं निसामेह // 536 // पारस चेव य वासा मासा छच्चेव अद्धमासो य / वीरवरस्स भगवओ एसो छउमत्थपरियाओ॥५३७॥ एवं तवोगुणरओ अणुपुव्वेणं मुणी विहरमाणो / घोरं परीसहचर्मु अहियासित्ता महावीरो॥५३८ // // 295 //