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________________ बावश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः प्रव्रज्या केशनयनं पापाकरणाभिग्रहश्च भा. गा. 105-111 // 272 // एवं सदेवमणुआसुराए परिसाए परिवुडो भयवं / अभिथुव्वंतो गिराहिं संपत्तो नायसंडवणं // 105 // (भा०) उजाणं संपत्तो ओरुभइ उत्तमाउ सीआओ / सयमेव कुणइ लोअं सको से पडिच्छए केसे // 106 // (भा०) जिणवरमणुण्णवित्ता अंजणघणरुयगविमलसंकासा। केसा खणेण नीआ खीरसरिसनामयं उदहिं॥१०७॥ (भा०) अञ्जनं प्रसिद्धं, घनो-मेघो रुचक:-कृष्णमणिविशेषस्तद्वद्विमलः संकाशः-छायाविशेषो येषां ते तथा // 101-107 // दिवो मणूसधोसो तूरनिनाओ अ सकवयणेणं / खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवज्जइ चरितं // 108 // (भा०) 'दिव्यः' देवसमुत्थो मनुष्यघोषश्च, तथा तूर्यनिनादश्च, क्षिप्रमेव, 'निलुक्को' देश्या विरतो, यदा यस्मिन् काले प्रतिपद्यते चारित्रं // 108 // स यथा चारित्रं प्रतिपद्यते तथाऽऽहकाऊण नमोकारं सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे / सव्वं मे अकरणिज्जं पावंति चरित्तमारूढो ॥१०९॥(भा०) सच भदन्तशब्दरहितं सामायिकमुच्चारयति // 109 // चारित्रप्रतिपत्तिकाले च भगवतो निर्भूषणस्य सत इन्द्रो देवदष्यवस्त्रमपनीतवान् / अत्रान्तरे तत्रागतस्य प्रार्थयतो द्विजस्यार्द्ध तस्य दत्तं.स्वामिना, भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिसमनन्तरमेव. मनःपर्यायज्ञानमुदपादि, सर्वार्हतां चायं क्रमो, यत आहतिहिं नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव हुंति गिहवासे। पडिवणंमिचरित्ते चउनाणी जाव छउमत्था ॥११०॥(भा०) यावद्गृहवासे वसन्तीति वाक्यशेषः // 11 // बहिआ य णायसंडे आपुच्छित्ताण नायए सव्वे / दिवसे मुहत्तसेसे कमारगाम समणुपत्तो॥१११॥ (भा०) // 272 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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