________________ आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः // 271 // देववर्णन निर्गमवर्णनं अलङ्कारश्च भा. गा. 97-104 __'आलइअं' आविद्धमुच्यते, मालाअनेकसुरकुसुमग्रथिता, आविद्धौ मालामुकुटौ यस्य स तथा, निवसितश्वेतवस्त्रः, यस्य च मूल्यं शतसहस्रं दीनाराणां, एवम्भूतः स्वामी मार्गशीर्षबहुलदशम्यां हस्तोत्तरायोगेन // 95-96 // सीहासणे निसण्णो सकीसाणा य दोहि पासेहिं / वीअंति चामरेहिं मणिकणगविचित्तदंडेहिं // 97 // (भा०) पुटिव उक्खित्ता माणुसेहिंसा हट्ठरोमकूवेहिं / पच्छा वहंति सीअं असुरिंदसुरिंदनागिंदा // 98 // (भा०) उत्क्षिप्ता-उत्पाटिता मानुषैः सा शिबिका, हृष्टानि रोमकूपानि येषां तैः // 98 // असुरादिस्वरूपं वर्णयति| चलचवलभूसणधरा सच्छंदविउव्विआभरणधारी / देविंददाणविंदा वहति सी जिणिंदस्स // 99 // (भा०) चला गमनक्रियायोगात्, हारादिचपलभूषणधराश्च, स्वच्छन्दविकुर्वितान्याऽऽभरणानि-कुण्डलादीनि धारयितुं शीलं येषां ते तथा // 99 // अत्रान्तरेकुसुमाणि पंचवण्णाणि मुयंता दुंदुही य ताडंता / देवगणा य पहट्ठा समंतओ उच्छयं गयणं // 100 // (भा०) देवगणाः प्रहृष्टाः, भगवन्तमेव स्तुवन्तीति क्रियाध्याहारः, एवं स्तुवद्भिर्देवैः समन्ततो व्याप्तं गगनं // 10 // वणसंडोव्व कुसुमिओ पउमसरो वा जहा सरयकाले / सोहइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं॥१०१॥(भा०) सिद्धत्थवणं च(व) जहा असणवणं सणवणं असोगवणं / चूअवणं व कुसुमिअंइअगयणयलं सुरगणेहिं // 102 // अयसिवणं व कुसुमिअंकणिआरवणं व चंपयवणं वातिलयवणं व कुसुमिअंइअगयणतलं सुरगणेहि।।१०३॥(भा०) वरपडहभेरिझल्लरिदुंदुहिसंखसहिएहिं तुरेहिं / धरणियले गयणयले तूरनिनाओ परमरम्मो // 104 // (भा०.) // 271 //