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________________ आवश्यकनिर्युक्तेरवचूर्णिः जिनान्तराणि // 248 // श्रेयांसाच्चतुःपञ्चाशता सागरैर्वासुपूज्यः, वासुपूज्यात्रिंशता सागरैर्विमलः // 11 // विमलजिणा उप्पण्णो नवहिं अयरेहिंगंतइजिणोऽवि / चउसागरनामेहिं अणंतईतो जिणो धम्मो // 12 // विमलान्नवभिः सागरैरनन्तः, अनन्ताच्चतुर्भिः सागरैर्धर्मः // 12 // धम्मजिणाओ संती तिहि उ तिचउभागपलिअऊणेहिं / अयरेहि समुप्पण्णो पलिअद्धेणं तु कुंथजिणो॥१३॥ धात् त्रिभिः सागरैः पल्योपमपादत्रयन्यूनैः शान्तिः, शान्तेः पल्योपमार्द्धन कुन्थुः // 13 // पलिअचउम्भाएणं कोडिसहस्सूणएण वासाणं / कुंथूओ अरनामो कोडीसहस्सेण मल्लिजिणो // 14 // कुन्थोः पल्योपमचतुर्थभागेन वर्षकोटिसहस्रोनेनारः, अराद्वर्षकोटिसहस्रेण मल्लिः // 14 // मल्लिजिणाओ मुणिसुव्वओ य चउपण्णवासलक्खेहिं / सुव्वयनामाओ नमी लक्खेहिं छहि उ उप्पण्णो॥१५॥ मल्लेश्चतुःपञ्चाशता वर्षलक्षैः सुव्रतः, सुव्रतात्पड्डिवर्षलक्ष मिः // 15 // पंचहिं लक्खेहिं तओ अरिहनेमी जिणो समुप्पण्णो / तेसीइसहस्सेहिं सएहि अट्ठमेहिं च // 16 // नमः पञ्चभिर्वर्षलझर्नेमिः, नेमेर्वर्षाणां यशीत्या सहः सार्द्धाष्टमशतैश्च पार्श्वः // 16 // नेमीओ पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो / अड्डाइज्जसएहिं गएहिं चरमो समुप्पण्णो // 17 // पार्थात् सार्द्धशतद्वयेन वीरः // 17 // अथ चक्रिणोऽधिकृत्य जिनान्तराण्याहउसमे भरहो अजिए सागरो मघवं सणंकुमारो अ।धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चकवहिदुगं // 416 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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