________________ श्रीवीरस्य आवश्यक एव देशना श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्वप्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्द्धमानस्य, भावार्थः कथानकादवसेयः // 146 // नियुक्तेरव- एतदेवोपदर्शयन् गाथाद्वयमन्तर्भाष्यकृदाह चूर्णिः अवरविदेहे गामस्स, चिंतओ रायदारुवणगमणं / साह भिक्खनिमित्तं सत्था हीणे तहिं पासे // मू. भा. 1 // // 169 // अपरविदेहे ग्रामस्य चिन्तकः, 'रायदारुवणगमणं' ति अत्र निमित्तशब्दलोपो द्रष्टव्यः, राजदारुनिमित्तं तस्य वनगमनं, स साधून भिक्षानिमित्तं सार्थाद् भ्रष्टान् तत्र दृष्टवान् // 1 // | दाणन्न पंथनयनं अणुकंप गुरूण कहण सम्मत्तं / सोहम्मे उववण्णो, पलियाउ सुरो महिड्डीओ // मू. भा. 2 // परमभक्त्या दानमन्नपानस्य, नयनं-पापणं पथि, तदनन्तरमनुकम्पया गुरोधर्मकथनं, ततः सम्यक्त्वप्राप्तिः, तत्प्रभावान्मृत्वा सौधर्मे उत्पन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिकः // 2 // लण य सम्मत्तं, अणुकंपाए उ सो सुविहियाणं। भासुरवरबोंदिधरो, देवो वेमाणिओ जाओ॥ 147 // स ग्रामचिन्तकः सुविहितानामनुकम्पया-परमभक्त्या तेभ्यः सम्यक्त्वं लब्ध्वा च भास्वरां-दीप्तिमी वरां-प्रधानां बोन्दी-तनुं धारयतीति भास्वरवरबोन्दिधरो देवो वैमानिको जात इति नियुक्तिगाथार्थः // 147 // . चइऊण देवलोगा, इह चेव य भारहंमि वासंमि / इक्खागकुले जाओ, उसभसुअसुओ मरीइत्ति // 148 // देवलोकात्स्वायुःक्षये च्युत्वा इहैव भारते वर्षे इक्ष्वाकुकुले जात उत्पन्नः ऋषभसुतसुतो मरीचिरिति नाना सामान्येन मा०चू०१५ऋषभपौत्रः॥ 148 // यतश्चैवमतः प्रथमसम्यक्त्व लाभ: देवत्वं च म.भा.१-२ गा. 146 147 मरीचिः गा. 148 // 169 //