________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ 33 शतके अवान्तर शतक: 12 सूत्रम् 844-849 एकेन्द्रियभेदादिः // 1592 // अचरिमोत्ति ॥छटुंएगिदिसयंसम्मत्तं // 6 // (ग्रन्थागं १५०००)१जहा कण्हलेस्सभवसिद्धिएहिं सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहिविसयंभाणियव्वं ॥सत्तमं एगिदियसयंसम्मत्तं ॥७॥१एवं काउलेस्सभवसिद्धीएहिविसयं॥अट्ठमं एगिदियसयंसम्मत्तं॥ ८॥९क० णं भंते! अभवसिद्धीया एगि०प०?, गोयमा! पंचविहा अभवसि०प० तं० पु०काइया जाव वणकाइया एवं जहेव भवसिद्धीयसयं भणियं नवरं नव उद्देसगा चरमअचरमउद्देसगवजा सेसं तहेव // नवमं एगिदियसयं सम्मत्तं // 9 // 1 एवं कण्हलेस्सअभवसि०एगि०सयंपि॥ दसमं एगिदियसयं सम्मत्तं // १०॥१नीललेस्सअभवसि०एगिदिएहिवि सयं // 11 // 1 काउलेस्सअभवसिद्धीयसयं, एवं चत्तारिवि अभवसि०सयाणि णव 2 उद्देसगा भवंति, एवं एयाणि बारस एगिदियसयाणि भवंति // १२॥सूत्रम् 849 // तेत्तीसइमं सयंसम्मत्तं // 33 // कइविहा ण मित्यादि, चोद्दस कम्मपयडीओ त्ति, तत्राष्टौ ज्ञानावरणादिकास्तदन्याः षट् तद्विशेषभूताः सोइंदियवज्झं ति श्रोत्रेन्द्रियं वध्यं-हननीयं यस्य तत्तथा मतिज्ञानावरणविशेष इत्यर्थः, एवमन्यान्यपि, स्पर्शनेन्द्रियवध्यं तु तेषां नास्ति, तद्भाव एकेन्द्रियत्वहानिप्रसङ्गादिति / इथिवेयवझंति यदुदयात्स्त्रीवेदोन लभ्यते तत्स्त्रीवेदवध्यम्, एवं पुंवेदवध्यमपि, नपुंसकवेदवध्यं तु तेषां नास्ति, नपुंसकवेदवर्त्तित्वादिति / / 12 / / / / 844 // शेष सूत्रसिद्धम्, नवरं एवं दुपएणं भेदेएणं ति अनन्तरोपपन्नकानामेकेन्द्रियाणां पर्याप्तकापर्याप्तकभेदयोरभावेन चतुर्विधभेदस्यासम्भवाद् द्विपदेन भेदेनेत्युक्तम् / / 845-848 // तथा चरमअचरमउद्देसगवज्जं ति, अभवसिद्धिकानामचरमत्वेन चरमाचरमविभागो नास्तीतिकृत्वेति // 1 // // 849 // त्रयस्त्रिंशं शतं वृत्तितः समाप्तिमिति // 33 // // 1592 //