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________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ // 1586 // 32 शतके उद्देशकः 1-28 सूत्रम् 842-843 उद्वर्तना ॥अथ द्वात्रिंशंशतकम्॥ ॥द्वात्रिंशशतके प्रथमादारभ्याष्टाविंशान्ता उद्देशकाः॥ एकत्रिंशेशते नारकाणामुत्पादोऽभिहितोद्वात्रिंशेतु तेषामेवोद्वर्त्तनोच्यत इत्येवंसम्बन्धमष्टाविंशत्युद्देशकमानमिदं व्याख्यायते, तस्य चेदमादिसूत्रं १खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति? कहिं उववजंति? किं नेरइएसु उव० ति जोणिएसु उवव० उव्वट्टणा जहा वक्वंतीए।२ ते णं भंते! जीवा एगसमएणं के० उव्वटुंति?, गोयमा! चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा सोलसवा संखेज्जा वा असं० वा उव्व०, 3 तेणंभंते! जीवा कहं उव्व०?, गोयमा! से जहा नामए पवए एवं तहेव, एवं सोचेवगमओजाव आयप्पयोगेणं उव्व० नो परप्प० उव्व०, ४रयणप्पभापुढविनेरइए खुड्डागकड० एवंरयणप्पभाएविएवं जाव अहेसत्तमाए, एवं खुल्तेयोगखुल्दावरजुम्मनु कलियोगा नवरंपरिमाणंजाणियव्यं, सेसंतंचेव / सेवं भंते! रत्ति // सूत्रम् 842 // 32-1 // ५कण्हलेस्सकडजुम्मनेरइया एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उवट्टणासएवि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा नवरं उव्वटुंतित्ति अभिलाओभाणियव्वो, सेसंतंचेव / सेवं भंते सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ / / सूत्रम् 843 // उव्वट्टणासयंसम्मत्तं // 32 // खुड्डागे त्यादि, उवट्टणा जहा वक्कंतीए त्ति, साचैवमर्थतः 'नरगाओ उव्वट्टा गन्भे पज्जत्तसंखजीवीसु'त्ति॥॥१॥॥८४२।। द्वात्रिंशं शतं वृत्तितः समाप्तम् // 32 //
SR No.600445
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size38 MB
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