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________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ // 1417 // 24 शतके उद्देशक: 24 सूत्रम् 715 वैमानिकोत्पादः आइल्लगाणि त्ति छेदवर्तिसंहननस्य चतुर्णामेव देवलोकानांगमने निबन्धनत्वात्, यदाह छेवढेण उगम्मइ चत्तारि उजाव आइमा कप्पा। वड्वेज कप्पजुयलं संघयणे कीलियाईए॥शाइति // 18 // जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाइ न्ति आनतादिदेवो मनुष्येभ्य एवोत्पद्यते / तेष्वेवच प्रत्यागच्छतीति जघन्यतो भवत्रयं भवतीति, एवं भवसप्तकमप्युत्कर्षतो भावनीयमिति, उक्कोसेणं सत्तावन्न मित्यादि, आनतदेवानामुत्कर्षत एकोनविंशतिसागरोपमाण्यायुः, तस्य च भवत्रयभावेन सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि मनुष्यभवचतुष्टय-8 सम्बन्धिपूर्वकोटिचतुष्काभ्यधिकानि भवन्तीति // 20 // // 715 // चतुर्विंशतितमशते चतुर्विंशतितमः॥२४-२४ ॥समाप्त च विवरणतश्चतुर्विंशतितमं शतम् // 24 // चरमजिनवरेन्द्रप्रोदितार्थे परार्थ, निपुणगणधरेण स्थापितानिन्द्यसूत्रे / विवृतिमिह शते नो कर्तुमिष्टे बुधोऽपि, प्रचुरगमगभीरे किं पुनर्मादृशोऽज्ञः॥१॥ // इति श्रीमच्चन्द्रकुलनभोनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यवर्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भगवतीवृत्तौ चतुर्विशं शतकं समाप्तम् // // 141 0 सेवार्तेन तु गच्छति चतुर आद्यान् कल्पान् यावत् कीलिकादिषु संहननेषु कल्पयुग्मं वर्धयेत् // 1 //
SR No.600445
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size38 MB
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