________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् 18 शतके उद्देशक:३ सूत्रम् 621 कर्मनानात्वं भाग-३ // 1237 // स्नेहरज्ज्वादिना द्रव्यस्य वा परस्परेण बन्धो द्रव्यबन्धः, भावबंधे यत्ति भावबन्ध आगमादिभेदाद् द्वेधा, स चेह नोआगमतो ग्राह्यः, तत्र भावेन मिथ्यात्वादिना भावस्य वा- उपयोगभावाव्यतिरेकाजीवस्य बन्धो भावबन्धः।। 9 // पओयबंधे य त्ति जीवप्रयोगेण द्रव्याणां बन्धनं वीससाबंधे त्ति स्वभावतः // 10 // साईवीससाबंधे त्ति अभ्रादीनां अणाईयवीससाबंधे य त्ति धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायादीनाम् // 11 // सिढिलबंधणबन्धे यत्ति तृणपूलिकादीनां धणियबंधणबन्धे यत्ति रथचक्रादीनामिति // // 12 // // 620 // कर्माधिकारादिदमाह 17 जीवाणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे जाव जे य कजिस्सइ अत्थि याइ तस्स केइ णाणत्ते?, हंता अस्थि, से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ जीवाणं पावे कम्मे जे यकडे जावजे य कजिस्सति अत्थियाइ तस्स णाणत्ते? मांगदियपुत्ता! से जहानामए-केइ पुरिसे धणुं परामुसइ धणुं 2 उसुंपरामुसइ उ० 2 ठाणं ठा०२ आययकन्नाययं उसुंकरेंति आ० 2 उर्ल्ड वेहासं उव्विहइसे नूणं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उई वेहासंउव्वीढस्स समाणस्स एयतिविणाणत्तं जाव तं तंभावंपरिणमतिविणाणत्तं?, हंता भगवं! एयतिविणाणतंजाव परिणमतिविणाणत्तं से तेणटेणं मागंदियपुत्ता! एवं वुच्चइ जावतं तंभावं परिणमतिविणाणत्तं, 18 नेरइयाणं पावे कम्मे जे य कडे एवं चेव नवरं जाव वेमाणियाणं // सूत्रम् 621 // जीवाण मित्यादि, एयइवि नाणत्तं ति 'एजते' कम्पते यदसाविषुस्तदपि नानात्वं भेदोऽनेजनावस्थापेक्षया, यावत्करणात्। वेयइविणाणत्त मित्यादि द्रष्टव्यम्, अयमभिप्रायः- यथा बाणस्योर्दू क्षिप्तस्यैजनादिकं नानात्वमस्ति, एवं कर्मणः कृतत्वक्रियमाणत्वकरिष्यमाणत्वरूपंतीव्रमन्दपरिणामभेदात्तदनुरूपकार्यकारित्वरूपंच नानात्वमवसेयमिति // 17-18 // // 621 // अनन्तरं कर्म निरूपितम्, तच्च पुद्गलरूपमिति पुद्गलानधिकृत्याह // 1237 //