________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 1026 // अवगाढाः, यदाह जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज त्ति, वनस्पतयस्त्वनन्ता इति // 484 // अथास्तिकायप्रदेशनिषदनद्वारम्, 13 शतके तत्र च उद्देशकः 4 नरकपृथि४४ एयंसिणं भंते! धम्म० अधम्म० आगासत्थिकार्यसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुइट्टित्तए वा?, व्यधिकारः। नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से केणटेणं भंते! एवं वु० एतंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासत्थिकायंसि णो सूत्रम् 485 ११अस्तिकाचक्किया केई आसइत्तए वा जाव ओगाढा?, गोयमा! से जहा नामए- कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा जहा यनिषदनद्वारम् / रायप्पसेणइज्जे (राजप्र० प० 134) जाव दुवारवयणाई पिहेइ दु० रत्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ज० एक्को वा दो वा धर्मादीना मन्येषुनिषदतिन्निवाउ० पदीवसहस्संपलीवेजा, से नूणंगोयमा! ताओपदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमन्नपुट्ठाओजाव अन्नमनघडताए नादिसामर्थ्यचिटुंति?, हंता चि०, चक्कियाणं गोयमा! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा?, भगवं! णो ति० स०, अणंता प्रश्नाः / पुण तत्थ जीवा ओ०, से तेण• गोयमा! एवं वु० जाव ओगाढा। सूत्रम् 485 // सूत्रम् 486 १२बहुसम४४ एयंसिण मित्यादि, एतस्मिन् णमित्यलङ्कारे, चक्किय त्ति शक्नुयात्कश्चित् पुरुषः॥४८५॥ अथ बहुसमेति द्वारम्, तत्र-2 द्वारम्। लोकस्य४५ कहिणं भंते! लोए बहुसमे?, कहिणं भंते! लोएसव्वविग्गहिए प०?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेढिल्लेसु बहसमखुड्डागपयरेसु एत्थ णं लोए बहुसमे एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए प० / 46 कहिणं भंते! विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते?, गोयमा! संक्षिप्तवक्र भाग प्रश्नाः। विग्गहकंडए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए प०॥ सूत्रम् 486 // 45 कहि ण मित्यादि, बहुसमे त्ति, अत्यन्तं समः, लोको हि क्वचिद्वर्द्धमानः क्वचिद्धीयमानोऽतस्तन्निषेधाहसमो // 1026 // वृद्धिहानिवर्जित इत्यर्थः, सव्वविग्ग. त्ति विग्रहो वक्रं लघुमि(रि)त्यर्थः, तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः सर्वसङ्क्षिप्त इत्यर्थः, उवरिमहेठिल्लेसु खुड्डागपयरेसु त्ति, उपरिमो यमवधीकृत्योर्द्ध प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अधस्तनश्च