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________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 1027 // यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता, ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्त्तिनोः, एत्थ णं ति, एतयोः प्रज्ञापकेनोपदय॑मानतया प्रत्यक्षयोः 46 विग्गहवि. त्ति विग्रहो वक्रं तद्युक्तो विग्रहः शरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः, विग्गहकंडए त्ति विग्रहो वक्रम्, कण्डकमवयवः, विग्रहरूपं कण्डकं विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूपर इत्यर्थः, यत्र वा प्रदेशवृद्ध्या हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति // 486 // अथ लोकसंस्थानद्वारम्, तत्र च 47 किंसंठिएणं भंते! लोए प०?, गोयमा! सुपइट्ठियसंठिए लोएपण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे (सू०४) जाव अंतं करेति / / 48 एयस्सणंभंते! अहेलोगस्स तिरियलोगस्स उड्लोगस्सय कयरे 2- हिंतोजाव विसेसाहियावा?,गोयमा! सव्वत्थोवे तिरियलोए उडलोए असंखेजगुणे अहेलोए विसेसाहिए। सेवं भंते रत्ति // सूत्रम् 487 // 13-4 // 48 सव्वत्थोवे तिरियलोए त्ति, अष्टादशयोजनशतायामत्वात्, उकलोए असंखेज्जगुणे त्ति किश्चिन्न्यूनसप्तरजूच्छ्रितत्वात्, अहे लोए विसेसाहिए त्ति किञ्चित्समधिकसप्तरजूच्छ्रितत्वादिति // 487 // त्रयोदशशते चतुर्थः॥१३-४॥ 13 शतके उद्देशक:४ नरकपृथिव्यधिकारः। सूत्रम् 487 13 संस्थानद्वारम्। लोकस्यसुप्रष्ठिकसंस्थानोर्वादिलोकानामल्पबहुत्व प्रश्नाः / उद्देशक:५ नारकाहाराधिकारः। सूत्रम् 488 नै०आदीनां सचित्तादि आहारप्रश्नाः। ॥त्रयोदशशतके पञ्चम उद्देशकः॥ अनन्तरोद्देशके लोकस्वरूपमुक्तम्, तत्र चनारकादयो भवन्तीति नारकादिवक्तव्यतांपञ्चमोद्देशकेनाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहरा?, गोयमा! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा पढमो नेरइय उद्देसओ (प०४९८-२) निरवसेसो भाणियव्वो।सेवं भंते! रत्ति।सूत्रम् 488 // 13-5 // // 1027 //
SR No.600444
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages574
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size15 MB
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