________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 558 // ह्येतदेव शरीरत्रयं भवतीतिकृत्वा तत्प्रयोगपरिणता एव ते भवन्ति, बादरपर्याप्तकवायूनां त्वाहारकवर्जशरीरचतुष्टयं भवतीतिकृत्वाऽऽह, नवरंजे पज्जत्ते त्यादि। एवं गब्भवक्कंतियावि अपज्जत्तग त्ति वैक्रियाहारकशरीराभावाद्गर्भव्युत्क्रान्तिका अप्यपर्याप्तका मनुष्यस्त्रिशरीरा एवेत्यर्थः॥ दं० 4 जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवी त्यादिरिन्द्रियविशेषणश्चतुर्थो दण्डकः 4 // दं०५ जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवी त्यादिरौदारिकादिशरीरस्पर्शादीन्द्रियविशेषणः पञ्चमः 5 // 606 जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवी त्यादिवर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानविशेषणः षष्ठः 6 // 07 एवमौदारिकादिशरीरवर्णादिभावविशेषणः सप्तमः 7 // 60 8 इन्द्रियवर्णादिविशेषणोऽष्टमः B8 // 09 शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति, अत एवाह, एते नव दण्डकाः // 310 // 25 मीसापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता?, गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदियमीसाप० 26 एगिदियमीसाप० णं भंते! पोग्गला कतिविहा प०?, गोयमा! एवं जहा पओगपरिणएहिं नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहिवि नवदंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेसं, नवरं अभिलावो मीसापरिणया भाणियव्वं, सेसंतंचेव, जाव जे पजत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तर जाव आययसंठाणपरिणयावि।सूत्रम् 311 // 27 वीससापरिणयाणं भंते! पोग्गला कतिविहा प०?, गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा- वन्नपरिणया गंधप० रसप० फासप० संठाणप०,जे वनपरिणयाते पंचविहा प०, तंजहा-काल(ला)वन्नप० जाव सुकिल्लवन्नप०,जे गंधपरिणया ते दुविहा प०, तंजहासुब्भिगंधप०वि दुब्भिगंधपरिणयावि, एवं जहा पन्नवणापदे (प्रज्ञा० पद० 1 प० १०-१)तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणओ आयतसंठाणपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयाविजाव लुक्खफासपरिणयावि ॥सूत्रम् 312 // 25-26 मिश्रपरिणतेष्वप्येत एव नव दण्डका इति // 311 // 27 अथ विश्रसापरिणतपुद्गलांश्चिन्तयति / 8 शतके उद्देशकः१ पुद्गलपरिणामाधिकारः। सूत्रम् 311 पञ्चमिश्रपरिणत एकेन्द्रियमिश्रपरिणतपुद्गलादिनवदण्डकप्रश्नाः / सूत्रम् 312 पञ्चविस्रसापरिणत वर्णादिपरिणतपुद्रलप्रश्नाः / 8 // 558 //