SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 658 // लेसाभितावेणं मझंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे यदीसंति लेस्सापडिघाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरेय मूले यदीसंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वु०- जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले यदीसन्ति जाव अत्थमण जाव दीसंति। 39 जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिया किंतीयं खेत्तं गच्छंति पडुप्पन्नं खेत्तंग० अणागयं खेत्तं ग०?, गोयमा! णो तीयं खेत्तं ग० पडु० खेत्तं ग० णो अणागयं खेत्तं ग०, 40 जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति पडु खेत्तं ओ० अणा० खेत्तं ओ०?, गोयमा! नो तीयं खेत्तं ओ० पडु० खेत्तं ओ० नो अणा खेत्तं ओ०, 41 तं भंते! किं पुढे ओ० अपुढे ओ०?, गोयमा! पुढे ओभासंति नो अपुढे ओ० जाव नियमा छद्दिसिं। 42 जंबूद्दीवेणंभंते! दीवे सूरिया किंतीयं खेत्तं उज्जोवेंति एवं चेव जाव नियमा छद्दिसिं, एवं तवेंति एवं भासंति जाव नियमा छद्दिसिं // 43 जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जइ पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ अणागए खेत्ते किरिया कजइ?, गोयमा! नो तीए खेत्ते कि० क० पडु० खेत्ते कि० क० णो अणा० खेत्ते कि० क०, 44 सा भंते! किं पुट्ठा क० अपुट्ठा क०?, गोयमा! पुट्ठाक० नो अपुट्ठाक० जाव नियमा छद्दिसिं / 45 जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उद्धं तवंति के० खेत्तं अहेत. के० खेत्तं तिरियं त ?, गोयमा! एगंजोयणसयं उडुंतवंति अट्ठारस जोयणसयाई अहे त० सीयालीसंजोयणसहस्साइंदोन्नि तेवढे जोयणसए एकवीसंचसट्ठियाए जोयणस्स तिरियं तवंति // 46 अंतोणं भंते! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्सजेचंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उद्योववन्नगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्लोसेणं छम्मासा / 47 ब(बा)हिया णं भंते! माणुसुत्तरस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदट्ठाणे णं भंते! के० कालं उववाएणं विरहिए प०?, गोयमा! जह० एवं समयं उक्को० छम्मासा / सेवं भंते! 2 / / सूत्रम् 344 ॥अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥८-८॥ 36 जंबुद्दीव यित्यादि, दूरे य मूले य दीसंति त्ति दूरे च द्रष्ट्रस्थानापेक्षया व्यवहिते देशे मूले चाऽऽसन्ने द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो 8 शतके उद्देशक:८ गुरुप्रत्यनीकाघधिकारः। सूत्रम् 344 सूर्योद्मास्ता| दिकाले दूराऽऽसन्नप्रतिती, तत्कारणलेश्याप्रति|घातादिप्रश्नाः / गतिप्रकाशतापक्षेत्र विस्तार तद्देवोपपातादिप्रश्नाः। // 658 //
SR No.600444
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages574
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy