________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय. वृत्तियुतम् भाग-१ // 294 // वर्तिष्य इति शेषः, दाणिं ति, इदानीं सम्प्रतीत्यर्थः // 146 // इह लेष्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावद्हीतुं न शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति? येन शक्रेण वज्रं क्षिप्तं संहृतं च, तथा वज्रं चेद्गृहीतं चमरः कस्मान्न गृहीत इत्यभिप्रायतः प्रस्तावनोपेतं प्रश्नोत्तरमाह 22 भंतेत्ति भगवं गोयमे समणंभ०म० वंदति रत्ता एवं व०- देवेणं भंते! महिड्डीए महज्जुतीए जाव महाणुभागे पुलवामेव पोग्गलं खिवित्ता पभूतमेव अणुपरियट्टित्ता णं गिण्हित्तए?, हंता पभू / / 23 से केणटेणं भंते! जाव गिण्हि०?, गोयमा! पोग्गले निक्खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगतीभवित्ता ततोपच्छा मंदगती भवति, देवेणंमहिड्डीए पुविपिय पच्छाविसीहे सीहगतीचेव तुरियतुरियगती चेव, से तेणट्टेणं जाव पभू गेण्हित्तए / 24 जतिणं भंते! देविंदे महिद्दीए जाव अणुपरियट्टित्ताणं गेण्हि० कम्हाणं भंते! सक्केणं देविंदे देवरन्ना (राया) चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाएति साहत्थिं गेण्हित्तए?, गोयमा! असुरकु० देवाणं अहे गतिविसए सीहे 2 चेव तुरिए 2 चेव उडेगतिवि० अप्पे 2 चेव मंदे 2 चेव वेमाणियाणं देवाणंउटुंगतिवि० सीहे 2 चेव तुरिए 2 चेव अहेगतिवि० अप्पे 2 चेव मंदे 2 चेव, जावतियं खेत्तं सक्के 3 उडे उप्पयति एक्केणं समएणं तं वजे दोहिं, जं वजे दोहिं तं चमरे तिहिं, सव्वत्थोवे सक्कस्स 3 उडलोयकंडए अहेलोयकंडए संखेज्जगुणे, जावतियं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयति एक्केणं समएणं तं सक्के दोहिं जं सक्के दोहिं तं वजे तिहिं, सव्वत्थोवे चमरस्स 3 अहेलोयकंडए उडलोयकंडए संखेजगुणे। एवं खलु गोयमा! सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाएति साहत्थिं गेण्हित्तए॥२५ सक्कस्सणं भंते! देविंदस्स 2 उडे अहे तिरियंचगतिविसयस्स कयरे 2 हिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा?, गोयमा! सव्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविंदे दे० अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तिरियं संखेने भागे गच्छइ उद्धं संखेने भागे गच्छइ / 26 चमरस्सणं भंते! असुरिंदस्स 2 उई अहे तिरियं च गतिविसयस्स कयरे 2 3 शतके उद्देशक:२ सूत्रम् 147 देवस्यपुद्गलक्षेपप्रतिग्रह प्रश्न:। शक्र-वज्रचमरेन्द्राणामूर्खादि गतिकालयोरल्पबहुत्व प्रश्नाः / // 294 //