________________ दशममध्ययनं सभिक्षुः, श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 409 // नियुक्तिः 358 निगमनम्। सूत्रम् 1-5 षटकायाविराधको भिक्षुः। मूर्च्छया वसति भाटकगृहवा, तथा प्रत्यक्षं च उपलभ्यमान एव जलगतान् अप्कायादीन् यः पिबति, तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं न्वसौ भिक्षुः, नैव भावभिक्षुरिति गाथार्थः॥३५७ // उक्त उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाह नि०- तम्हा जे अज्झयणे भिक्खुगुणा तेहिं होइ सो भिक्खू। तेहि असउत्तरगुणेहि होइ सो भाविअतरो उ॥३५८॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव भिक्षुगुणा मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिक्षुः, तैश्च सोत्तरगुणैः पिण्डविशुद्ध्याधुत्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ भाविततर: चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः / / 358 // उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदं निक्खम्ममाणाइ अबुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा / इत्थीण वसं न आविगच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू॥ सूत्रम् 1 // पुढविनखणे नखणावए, सीओदगंन पिए न पिआवए। अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जेस भिक्खू॥ सूत्रम् 2 // अनिलेण न वीएन वीयावए, हरियाणि न छिंदेन छिंदावए। बीआणि सया विवजयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू॥ सूत्रम् 3 // वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकट्ठनिस्सिआणं / तम्हा उद्देसिअंन भुंजे, नोऽविपए न पयावएजेस भिक्खू।सूत्रम् 4 // रोइअनायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज छप्पिकाए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरेजेस भिक्खू॥सूत्रम् 5 // // 409 //