________________ श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 355 // अष्टममध्ययन आचारप्रणिधिः, सूत्रम् 2-12 आचारप्रणिधौ षट्कायहिंसा प्रतिषेधः। उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि आनुपूर्व्या परिपाट्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः॥१॥ पुढविदगअगणिमारुअ, तणरुक्खस्सबीयगा। तसा अपाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा॥सूत्रम् 2 / / तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होअव्वयं सिआ।मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए॥सूत्रम् 3 // पुढविं भित्तिं सिलं लेखें, नेव भिंदे न संलिहे। तिविहेण करणजोएणं, संजए सुसमाहिए॥सूत्रम् 4 // सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अआसणे। पमज्जित्तु निसीइजा, जाइत्ता जस्स उग्गहं। सूत्रम् 5 // सीओदगंन सेविज्जा, सिलावुटुं हिमाणि / उसिणोदगंतत्तफासुअं, पडिगाहिज्ज संजए।सूत्रम् 6 // उदउल्लं अप्पणो कायं, नेव पुंछे न संलिहे / समुप्पेह तहाभूअं, नो णं संघट्टए मुणी। सूत्रम् 7 // इंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा सजोइन उंजिज्जा न घट्टिजा, नो णं निवावए मुणी॥सूत्रम् 8 // तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा। नवीइज्जऽप्पणो कायं, बाहिरं वावि पुग्गलं ।सूत्रम् 9 // तणरुक्खं न छिंदिज्जा, फलं मूलं च कस्सई। आमगं विविहं बीअं, मणसाविण पत्थए।सूत्रम् 10 // गहणेसुन चिट्ठिजा, बीएसु हरिएसु वा। उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसुवा। सूत्रम् 11 // तसे पाणे न हिंसिज्जा, वाया अदुव कम्मुणा। उवरओसव्वभूएसु, पासेज विविहं जगं।सूत्रम् 12 // तं प्रकारमाह-'पुढवि'त्ति सूत्रम्, पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसबीजा एते पञ्चैकेन्द्रियकायाः पूर्ववत्, त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षिणा वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः॥२॥ यतश्चैवमतः 'तेसिं'ति सूत्रम्, अस्य व्याख्यातेषां पृथिव्यादीनां अक्षणयोगेन अहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यं वर्तितव्यं स्यात् भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येन एभिः // 355 //