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________________ षष्ठमध्ययनं महाचारकथा, श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 310 // सूत्रम् अबंभचरिअंघोरं, पमायं दुरहिट्ठि।नायरंति मुणी लोए, भेआययणवजिणो॥सूत्रम् 15 // मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं / / सूत्रम् 16 // उक्तस्तृतीयस्थानविधिः, चतुर्थस्थानविधिमाह-'अबंभ'त्ति सूत्रम्, अब्रह्मचर्यं प्रतीतं घोरं रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात्, प्रमाद 15-16 प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् दुराश्रयं दुस्सेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात्, यतश्चैवमतो नाचरन्ति नासेवन्ते मुनयो अदत्ताना दानमैथुन लोके मनुष्यलोके, किंविशिष्टा इत्याह-भेदायतनवर्जिनो भेदः-चारित्रभेदस्तदायतनं-तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिन: विवर्जनचारित्रातिचारभीरव इति सूत्रार्थः॥१५॥एतदेव निगमयति-'मूलं'ति सूत्रम्, 'मूलं' बीजमेतद् अधर्मस्य पापस्येति पारलौकि- विधिः / कोऽपाय: महादोषसमुच्छ्रयंमहतांदोषाणां-चौर्यप्रवृत्त्यादीनांसमुच्छ्रयं-संघातवदित्यैहिकोऽपायः, यस्मादेवंतस्मात् मैथुनसंसर्ग सूत्रम् 17-21 मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः॥१६॥ अपरिग्रहबिडमुन्भेइमं लोणं, तिल्लं सपिंच फाणि।न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया // सूत्रम् 17 // विधिः। लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पव्वइएन से॥सूत्रम् 18 // जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं / तंपि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरंति अ॥सूत्रम् 19 // न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा / मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअवुत्तं महेसिणा॥ सूत्रम् 20 // सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे। अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरंति ममाइयं // सूत्रम् 21 // // 310 // प्रतिपादितश्चतुर्थस्थानविधिः, इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाह- 'बिड'त्ति सूत्रम्, बिडं गोमूत्रादिपक्वं उद्भेद्यं सामुद्रादि यद्वा / बिडं प्रासुकं उद्भेद्यं अप्रासुकमपि, एवं द्विप्रकारं लवणम्, तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम्, तत्र तैलं प्रतीतम्, सर्पिघृतम्, फाणितं
SR No.600441
Book TitleDashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size34 MB
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