________________ श्रीदशवैकालिकं श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 287 // सूत्रार्धयोर्व्यत्ययोपन्यासः, प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युद्देशादौ तदुपन्यासार्थं वा, अन्यथैवं स्यात्- दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सर्वं भुञ्जीत नोज्झेत् / प्रतिग्रहं संलिह्य लेपमर्यादया संयतः। विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः॥१॥ सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो अगोअरे।अयावयट्ठा भुच्चा णं, जड़ तेणं न संथरे। सूत्रम् 2 // तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए / विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य / / सूत्रम् 3 // विधिविशेषमाह-'सेज'त्ति सूत्रम्, शय्यायां वसतौनषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ,शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधान्नैषेधिकी तस्यां समापन्नो वा गोचरे, क्षपकादिः छन्नमठादौ अयावदर्थं भुक्त्वा न यावदर्थं - अपरिसमाप्तमित्यर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे। यदि तेन भुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः॥२॥'तओ'त्ति सूत्रम्, ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्तपानं गवेषयेद् अन्विष्ये(न्वेषये)त्, अन्यथा सकृद्भुक्तमेव यतीनामिति विधिना पूर्वोक्तेन संप्राप्ते भिक्षाकाल इत्यादिना, अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः // 3 // कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे / अकालंच विवज्जित्ता, काले कालं समायरे // सूत्रम् 4 // अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि / अप्पाणंच किलामेसि, संनिवेसंच गरिहसि // सूत्रम् 5 // सइ काले चरे भिक्खू, कुजा पुरिसकारिअं। अलाभुत्ति न सोइज्जा, तवुत्ति अहिआसए॥ सूत्रम् 6 // तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया। तं उज्जुअंन गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे // सूत्रम् 7 // गोअरग्गपविट्ठो अ, न निसीइज्ज कत्थई / कहंचन पबंधिज्जा, चिट्ठित्ता ण व संजए।सूत्रम् 8 // अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए। अवलंबिआ न चिट्ठिजा, गोअरग्गगओ मुणी॥ सूत्रम् 9 // पशचममध्ययन पिण्डैषणा, द्वितीयोद्देशक: सूत्रम् 2-3 निरवशेष अशनाऽऽज्ञा उत्सृजननिषेधश्च। सूत्रम् 4-9 असंस्तरणे पुनर्भिक्षाचर्या कालादियतना। // 287 //