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________________ श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् // 265 // मक्षा सूत्रम् 23 असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणिअं-सव्वत्थ संजम मित्यादि, अओसंघाडयस्स सयभायणाणि समप्पिअपडिस्सए पवचममध्ययन पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिज्जा। वित्थरओ जहा ओहणिज्जुत्तीए। इति सूत्रार्थः॥१९॥ पिण्डैषणा, प्रथमोद्देशकः णीअदुवारं तमसं, कुटुंगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहा (हगा)।सूत्रम् 20 // सूत्रम् जत्थ पुप्फाइंबीआई, विप्पइन्नाई कुट्ठए। अहुणोवलित्तं उलं, दवणं परिवज्जए।सूत्रम् 21 // 20-22 नीचद्वारपरिएलगंदारगंसाणं, वच्छगंवावि कुट्ठए। उल्लंघिआन पविसे, विउहिताण व संजए। सूत्रम् 22 // वर्जनादिः। तथा नीयदुवार न्ति सूत्रम्, नीचद्वारं नीचनिर्गमप्रवेशं तमस मिति तमोवन्तं कोष्ठकं अपवरकं परिवर्जयेत्, न तत्र भिक्षा गृह्णीयात्, सामान्यापेक्षया सर्व एवंविधो भवत्यत आह-अचक्षुर्विषयो यत्र न चक्षुर्व्यापारो यत्रेत्यर्थः, अत्र दोषमाह-प्राणिनो असंसक्त प्रलोकनम्। दुष्प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति, ईर्याशुद्धिर्न भवतीति सूत्रार्थः // 20 // किंच-'जत्थ'त्ति सूत्रम्, यत्र पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि बीजानि शालिबीजादीनि विप्रकीर्णानि अनेकधा विक्षिप्तानि, परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः, कोष्ठके कोष्ठकद्वारे वा, तथा अधुनोपलिप्त साम्प्रतोपलिप्तं आई अशुष्कं कोष्ठकमन्यद्वा दृष्टा परिवर्जयेद्रत एव, न तु तत्र धर्मलाभं कुर्यात्, संयमात्मविराधनापत्तेरिति सूत्रार्थः // 21 // किंच-‘एलगं'ति सूत्रम्, एडकं मेषं दारकं बालं श्वानं मण्डलं वत्सकं वापि क्षुद्रवृषभलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घय / पद्भ्यां न प्रविशेत, व्यूह्य वा प्रेर्य वेत्यर्थः, संयतः साधुः आत्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाच्चेति सूत्रार्थः // 22 // असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरा वलोअए। उप्फुल्लंन विनिज्झाए, निअट्टिज अयंपिरो॥सूत्रम् 23 // अशोभना चात्मविराधना, यतो भणितं- सर्वत्र संयममित्यादि, अतः सङ्घाटकाय स्वकभाजनानि समर्प्य प्रतिश्रयात्पानीयं गृहीत्वा संज्ञाभूमौ विधिना व्युत्सृजेत्, विस्तरतो यथा ओघनियुक्तौ। // 265 //
SR No.600441
Book TitleDashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size34 MB
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