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________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-४ // 1366 // 5. पञ्चममध्ययनं कायोत्सर्गः, नियुक्तिः | 1469-78 कायोत्सर्गगुणा: ध्यानलक्षणफले। नि०- एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो / तस्स तहिं निद्देसो इअरे तत्थिक्क दो व नवा // 1469 // नि०- काएविय अज्झप्पंवायाइ मणस्स चेवजह होइ। कायवयमणोजुत्तं तिविहं अज्झप्पमाहंसु॥१४७० // नि०- जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरंभओवावि। झाणं होइ नणुतहा इअरेसुवि दोसु एमेव // 1471 // नि०- देसियदंसियमग्गो वच्चंतो नरवई लहइ सई / रायत्ति एस वच्चइ सेसा अणुगामिणो तस्स // 1472 / / नि०- पढमिल्लअस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्थत्थि। नय ते ण संति तहियं न य पाहन्नं तहेयंमि॥१४७३॥ नि०- मा मे एजउ काउत्ति अचलओ काइअंहवइ झाणं / एमेव य माणसियं निरुद्धमणसो हवइ झाणं // 1474 / / नि०- जह कायमणनिरोहे झाणं वायाइ जुज्जइ न एवं / तम्हा वई उझाणं न होइ को वा विसेसुत्थ?॥१४७५ // नि०- मा मे चलउत्ति तणू जहतं झाणं निरेइणो होइ / अजयाभासविवज्जस्स वाइअंझाणमेवं तु॥१४७६॥ नि०- एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तव्वा / इय वेयालियवक्कस्स भासओवाइयं झाणं॥१४७७ // नि०- मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो।भंगिअसुअंगुणंतो वट्टइ तिविहेवि झाणंमि॥१४७८ // देहमतिजड्डसुद्धी ति देहजाड्यशुद्धिः- श्लेष्मादिप्रहाणत: मतिजाड्यशुद्धिः तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः, सुहदुक्खतितिक्खय त्ति सुखदुःखतितिक्षा सुखदुःखातिसहनमित्यर्थः, अणुप्पेहा अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा च तथाऽवस्थितस्य भवति, तथा झायइ य सुहं झाणं ध्यायति च शुभं ध्यानं धर्मशुक्ललक्षणम्, एकाग्र:- एकचित्तः शेषव्यापाराभावात् कायोत्सर्ग इति, इहानुप्रेक्षा ध्यानादौ ध्यानोपरमे भवतीतिकृत्वा भेदेनोपन्यस्तेति गाथार्थः॥१४६२ / / इह ध्यायति च शुभं ध्यानमित्युक्तम्, तत्र किमिदं ध्यानमित्यत आह-अंतोमुत्तकालं द्विघटिको मुहूर्त्तः भिन्नो मुहूर्तोऽन्तर्मुहूर्त इत्युच्यते, अन्तर्मुहूर्त्तकालं चित्तस्यैका 1938
SR No.600439
Book TitleAvashyak Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size14 MB
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