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________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-४ // 1350 // 5. पञ्चममध्ययनं कायोत्सर्गः, नियुक्तिः 1419-27 | व्रणदृष्टान्तः सोपनयः। राजपत्न्याद्यासेवनायां पारश्चिकं भवति, पारं-प्रायश्चित्तान्तमञ्चति- गच्छतीति पारश्चिकम्, न तत ऊर्दू प्रायश्चित्तमस्तीति गाथार्थः॥१४१८ // एवं प्रायश्चित्तभैषजमुक्तम्, साम्प्रतं व्रणः प्रतिपाद्यते, स च द्विभेदः- द्रव्यव्रणो भावव्रणश्च, द्रव्यव्रण: शरीरक्षतलक्षणः, असावपि द्विविध एव, तथा चाह नि०-दुविहो कायंमि वणो तदुब्भवागंतुओ अणायव्वो। आगंतुयस्स कारइ सल्लद्धरणं न इयरस्स // 1419 // नि०- तणुओ अतिक्खतुंडो असोणिओ केवलं तए लग्गो। अवउज्झत्ति सल्लो सल्लोन मलिज्जइ वणो उ॥१४२०॥ नि०- लग्गुद्धियंमि बीए मलिज्जइ परं अदूरगे सल्ले। उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए तइयगंमि / / 1421 // नि०- मा वेअणा उ तो उद्धरित्तु गालंति सोणिय चउत्थे। रुज्झइ लहुँति चिट्ठा वारिज्जइ पंचमे वणिणो॥१४२३॥ नि०- रोहेइ वणं छठे हियमियभोई अभुंजमाणो वा / तित्तिअमित्तं छिज्जइ सत्तमए पूइमसाई॥१४२३ / / नि०- तहविय अठायमाणो गोणसखइयाइरुप्फए वावि। कीरइ तयंगछेओसअट्ठिओसेसरक्खट्ठा // 1424 / / मूलुत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स / अवराहसल्लपभवो भाववणो होइ नायव्वो॥१॥ (प्र०) नि०- भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइआरो कोई वियडणाए उ / बीओ असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा?॥१४२५ / / नि०- सद्दाइएसुरागंदोसंच मणा गओ तइयगंमि / नाउं अणेसणिज्जं भत्ताइविगिचण चउत्थे॥१४२६॥ नि०- उस्सग्गेणवि सुज्झइ अइआरो कोइ कोइ उ तवेणं / तेणवि असुज्झमाणं छेयविसेसा विसोहिंति // 1427 // द्विविधो-द्विप्रकारः कायंमि वणो त्ति चीयत इति काय:- शरीरमित्यर्थः, तस्मिन् व्रण:-क्षतलक्षणः, द्वैविध्यं दर्शयतितस्मादुद्भवोऽस्येति तदुद्भवो- गण्डादिः आगन्तुकश्च ज्ञातव्यः, आगन्तुकः कण्टकादिप्रभवः, तत्रागन्तुकस्य क्रियते शल्योद्धरणं // 1350 //
SR No.600439
Book TitleAvashyak Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size14 MB
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