________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-३ // 1172 // परिणामो पभासइ भणति, कथं?, ज्ञेयाऽनन्तत्वात्सर्वार्थज्ञानस्याभाव एव, तथा च-'अज्जवि धावति णाणं अजवि लोओ अणंतओ होइ। अजवि न तुहं कोई पावइ सव्वण्णुयं जीवो॥१॥' एवमाइ पभासइ, न पुणज्जाणति जहा-'खीणावरणो जुगवं लोगमलोगं जिणो पगासेड़। ववगयघणपडलो इव परिमिययं देसमाइच्चो॥१॥'९, आयरियउवज्झाए पसिद्धे खिंसह निंदइ जच्चाईहिं, अबहुस्सुया वा एए तहावि अम्हेवि एएसिंतु सगासे किंपि कहंचि अवहारियंति मंदबुद्धीए बालेत्ति भणियं होइ 10, तेसिमेव य आयरिओवज्झायाणं परमबंधूणं परमोवगारीणंणाणीण न्ति गुणोवलक्खणं गुणेहिं पभाविए पुणो तेसिं चेव कब्जे समुप्पण्णे संमं न पडितप्पइ आहारोवगरणाईहिं णोवजुज्जेइ 11, पुणो पुणो त्ति असई अहिगरणं जो तिस्साइ उप्पाए कहेइ निवजत्ताइ तित्थभेयए णाणाइमग्गविराहणत्थंति भणिय होइ 12, जाणं आहमिए जोए- वसीकरणाइलक्खणे पउंजइ पुणो पुणो असइत्ति 13, कामे इच्छामयणभेयभिण्णे वमेत्ता चइऊण, पव्वज्जमन्भुवगम्म पत्थेइ अभिलसइ इहभविए-माणुस्से चेव अण्णभविए-दिव्वे 14, अभिक्खणं 2' पुणो 2 बहुस्सुएऽहंति जो भासए, बहुस्सुए (बहुस्सुएण) अण्णेण वा पुट्ठोस तुमं बहुस्सुओ?, आमंति भणइ तुण्हिक्को वा अच्छइ, साहवो चेव बहुस्सुएत्ति भणति 15, अतवस्सी तवस्सित्ति विभासा 16, जायतेएण अग्गिणा बहुजणं घरे छोढुं अंतो धूमेण अभिंतरे धूमं काऊण हिंसइ 17, अकिच्चं पाणाइवायाइ अप्पणा काउं कयमेएण भासइ- अण्णस्स उत्थोभं देइ 18, नियडुवहिपणिहीए पलिउंचइ नियडी- अण्णहाकरणलक्खणा माया उवही तं करेइ जेण तं पच्छाइजइ अण्णहाकयं पणिही एवंभूत एव (च) रइ, अनेन प्रकारेण 'पलिउंचई' वंचेइत्ति भणियं होइ 19, 0 अद्यापि धावति ज्ञानमद्यापि लोकोऽनन्तको भवति। अद्यापि न तव कोऽपि प्राप्नोति सर्वज्ञतां जीवः // 1 // 0 क्षीणावरणो युगपद् लोकमलोकं जिनः प्रकाशयति / व्यपगतघनपटल इव परिमितं देशमादित्यः॥ 1 // 4. चतुर्थमध्ययनम् प्रतिक्रमणं, 4.3 षष्ठादियावत् एकत्रिंशत्स्थानानि। सूत्रम् | 22(23) एकवीसाए सबलेहि। मोहनीयस्थानानि। // 1172 //