________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-३ // 1153 // यलोहीसुकंडुलोहकुंभीसु। कुंभी उ नरयपाला हणंति पाइंति नरएसु॥११॥ तडतडतडस्स भुंजति भज्जणे कलंबुवालुयापट्टे। वालुयगा नेरइया लोलेंति अंबरतलंमि // 12 // वसपूयरुहिरकेसठिवाहिणी कलकलंतजउसोत्तं / वेयरणिनिरयपाला नेरइए ऊ पवाहति // 13 // कप्पंति करगतेहिं कप्पंति परोप्परं परसुएहिं। संबलियमारुहंती खरस्सरा तत्थ नेरइए॥१४॥ भीए य पलायंते समंतओतत्थ ते निरंभंति / पसुणोजहा पसुवहे महघोसा तत्थ नेरइए॥१५॥षोडशभिर्गाथाषोडशैः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धाध्ययनैरित्यर्थः, क्रिया पूर्ववत्, तानि पुनरमून्यध्ययनानि___ समयो वेयालीयं उवसांगपरिणथीपरिण्णाय। निरयविभत्तीवीरत्थओय कुसीलाण परिहासा // 1 // वीरियधम्मसमर्माही मग्गसमोसरणं अहतहं गंथो। जमईयंतह गाहासोलसमं होइ अज्झयणं॥२॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव, सप्तदशविधे संयमे, सप्तदशविधे-सप्तदशप्रकारे संयमे सति, तद्विषयो वा प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रियायोजना पूर्ववत्, सप्तदशविधसंयमप्रतिपादनायाह पुढविदंगअगणिमायवणस्सइ बिति चउपणिंदिअज्जीवो / पहुँप्पेहमर्जण परिट्ठवण मणो वईकाएं॥१॥ 4. चतुर्थमध्ययनम् प्रतिक्रमणं, 4.3 षष्ठादियावत् एकत्रिंशत्स्थानानि। सूत्रम् 21(22) चोद्दसहिं भूयगामेहि। गाथाषोडशैः अध्ययनैः सप्तदशसंयमः। // 1153 // चलौहीषु कन्दूलोहकुम्भीषु / कुम्भिकास्तु नरकपालाघ्नन्ति पाचयन्ति नरकेषु / / 11 / / तडतडतडत्कुर्वन्तो भृजन्ति भ्राष्टे कदम्बवालुकापृष्ठे / वालुका नैरयिकपालाः लोलयन्त्यम्बरतले // 12 // वसापूयरुधिरकेशास्थिवाहिनीं कलकलज्जलश्रोतसम् / वैतरणीनरकपाला नैरयिकांस्तु प्रवाहयन्ति // 13 // कल्पन्ते क्रकचैः कल्पयन्ति परस्परं परशुभिः / शाल्मलीमारोहयन्ति खरस्वरास्तत्र नैरयिकान् / / 14 / / भीतांश्च पलायमानान् समन्ततस्तत्र तान्निरुन्धन्ति / पशून यथा पशुवधे महाघोषास्तत्र नैरयिकान् // 15 //