________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-२ / / 833 // यस्तेन, तथा भवान्तो यः भदन्तश्चेति, पश्चानुपूर्व्या ग्रन्थ इति गाथाद्वयार्थः॥१८५॥ मूलद्वारगाथायां व्याख्यातं भयान्तद्वारद्वयम्, १.प्रथमतव्याख्यानाच्च भदन्तभवान्तभयान्त इति गुमन्त्रणार्थः सूत्रावयव इति, उक्तं च- भाष्यकारेण आमंतेइ करेमि भदंत! मध्ययन सामायिक, सामाइयंति सीसोऽयं / आहामंतणवयणं गुरुणो किंकारणमिणति?॥१॥ भण्णइ- गुरुकुलवासोवसंगहत्थं जहा गुणत्थीह। णिचं | नियुक्तिः गुरुकुलवासी हवेज सीसो जओऽभिहियं // 2 // नाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न |1029 | क्षेत्रकालमुंचंति॥३॥आवस्सयंपि णिच्चं गुरुपामूलंमि देसियं होइ / वीसुपि हि संवसओ कारणओ जयइ सेज्जाए॥४॥ एवं चिय सव्वावस्सयाइ करणे, जीवआपुच्छिऊण कज्जाई। जाणावियमामंतणवयणाओ जेण सव्वेसिं // 5 // सामाइयमाइयं भदंतसद्दो य जं तयाईए। तेणाणुवत्तइ तओ भावकरणे श्रुते | करेमि भंतेत्ति सव्वेसु // 6 // किच्चाकिच्चं गुरुवो विदंति विणयपडिवत्तिहेउं च। ऊसासाइ पमोत्तुं तयणापुच्छाय पडिसिद्धं // 7 // बद्धाबद्ध निशीथागुरुविरहमिवि ठवणागुरूवि सेवोवदसणत्थं च। जिणविरहमिऽवि जिणबिंबसेवणामंतणं सफलं // 8 // रन्नो ण परोक्खस्सवि जह सेवा निशीथे नोश्रुते मंतदेवयाए वा। तह चेव परोक्खस्सवि गुरुणो सेवा विणयहेउं॥९॥इत्यादि, कृतं विस्तरेण / / साम्प्रतं सामायिकद्वारव्याचिख्या- गुणे तप: संयमौ। Oआमन्त्रयति करोमि भदन्त! सामायिकमिति शिष्योऽयम्। आह आमन्त्रणवचनं गुरोः किंकारणमिदमिति? // 1 // भण्यते- गुरुकुलवासोपसंग्रहार्थं यथा भाष्य:१८५ गुणार्थीह। नित्यं गुरुकुलवासी भवेत् शिष्यो यतोऽभिहितम् / / 2 / / ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च / धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति // 3 // 8 आवश्यकमपि नित्यं गुरुपादमूले देशितं भवति। विष्वगपि हि संवसतः कारणतो यतते शय्यायाम् / / 4 / / एवमेव सर्वावश्यकानि आपृच्छ्य कार्याणि। ज्ञापितमामन्त्रणवचनात् येन सर्वेषाम् // 5 // सामायिकमादौ भदन्तशब्दश्च यत्तदादौ / तेनानुवर्तते ततः करोमि भदन्त इति सर्वेषु / / 6 // कृत्याकृत्यं गुरवो विदन्ति छ विनयप्रतिपत्तिहेतवे च / उच्छ्रासादि प्रमुच्य तदनापृच्छया प्रतिषिद्धम् // 7 // गुरुविरहेऽपि स्थापनागुरुरपि सेवोपदर्शनार्थं च। जिनविरहेऽपि जिनबिम्बसेवनामन्त्रणं सफलम् / / 8 // राज्ञ इव परोक्षस्यापि यथा सेवा मन्त्रदेवताया वा। तथैव परोक्षस्यापि गुरोः सेवा विनयहेतवे // 9 // * रूवसोवदं० (वि०)। // 833 //