________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-२ // 809 // |निक्षेपाः, साडणसमएऽवणीयमि?॥१॥ भण्णइ भवचरिमंमिवि समये संघातसाडणा चेव। परभवपढमे साडणमओ तदूणो ण कालोत्ति // 2 // चो०- जइ परपढमे साडो णिविग्गहदो य तंमि संघातो / णणु सव्वसाडसंघातणाओ समए विरुद्धाओ॥३॥आ०- जम्हा विगच्छमाणं नमस्कार व्याख्या, विगयं उप्पज्जमाणमुप्पण्णं। तो परभवाइसमए मोक्खादाणाणमविरोहो॥४॥ चुइसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खओ जहातीए। जइल व्याख्या, परभवोवि ण तहिं तो सो को होउ संसारी? ॥५॥णणु जह विग्गहकाले देहाभावेऽवि परभवग्गहणं / तह देहाभामिवि होजेह भवोऽविता नियुक्तिः 1016 को दोसो? // 6 // आ०- जंचिय विग्गहकालो देहाभावेवि तो परभवो सो। चुइसमएऽविण देहो न विग्णहो जइ स को होइ? // 7 // साधोएवमौदारिके जघन्येतरभेदः सङ्गातपरिशाटकाल उक्तः / सङ्घातपरिशाटयोस्त्वेक एव(समयः), द्वितीयस्यासम्भवाद्, अधुना स्वरूपादि। सङ्घातादिविरहो जघन्येतरभेदोऽभिधीयते, तथा चाऽऽह- विरहः कः?, उच्यते, अन्तरकालः, औदारिके तस्य सङ्घातादेरयं / भाष्य:१६५ भवतीति गाथार्थः॥ B भा०-तिसमयहीणंखुडं होइ भवं सव्वबंधसाडाणं / उक्कोस पुव्वकोडी समओ उअही अतित्तीसं // 165 // त्रिसमयहीनं क्षुल्लं भवति, भवं इति भवग्रहणम्, सर्वबन्धसाटयोरन्तरकाल इति, तत्र त्रिसमयहीनं सर्वबन्धस्य क्षुल्लं तु सम्पूर्ण सर्वशाटस्येति, उत्कृष्टः पूर्वकोटिसमयः, तथा उदधीनि च (धयश्च) सागरोपमाणि च त्रयस्त्रिंशत् सर्वबन्धस्य, समयोनस्त्वयमेव - शाटनसमयेऽपनीते? // 1 // भण्यते भवचरमेऽपि समयं संघातशाटने एव / परभवप्रथमे शाटनमतस्तदूनो न काल इति // 2 // चोदकः- यदि परभवप्रथमे शाटो निर्विग्रहतश्च तस्मिन् संघातः। ननु सर्वशाटसंघातने समये विरुद्धे // 3 // आचार्यः- यस्माद्विगच्छत् विगतमुत्पद्यमानमुत्पन्नम्। ततः परभवादिसमये मोक्षादानयोर्न / विरोधः // 4 ॥च्युतिसमये नेहभव इहदेहविमोक्षतो यथाऽतीते। यदि परभवोऽपि न तत्र तदास को भवतु संसारी? // 5 // ननु यथा विग्रहकाले देहाभावेऽपि परभवग्रहणम्। तथा देहाभावेऽपि भवेदिह भवोऽपि को दोषः? // 6 // 2 आ०- यस्मादेव विग्रहकालो देहाभावेऽपि ततः (एव) परभवः सः। च्युतिसमयेऽपि न देहो न विग्रहो यदि स को भवेत्? // 7 // // 809 //