________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-१ // 234 // भा०- तंदण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि / विहिणा चूलाकम्मंबालाणं चोलया नाम 31 / / 22 / / भा०- उवणयणं तु कलाणं गुरुमूले साहुणोतओ धम्मं / घित्तुं हवंति सड्डा केई दिक्खं पवखंति 32 // 23 // भा०- दटुं कयं विवाहं जिणस्स लोगोऽवि काउमारद्धो 33 / गुरुदत्तिआय कण्णा परिणिज्जते तओ पायं // 24 // भा०- दत्तिव्व दाणमुसभं दितं दर्दू जणंमिवि पवत्तं / जिणभिक्खादाणंपि हु, दर्दू भिक्खा पवत्ताओ 34 // 25 // भा०- मडयं मयस्स देहोतं मरुदेवीइ पढमसिद्धत्ति / देवेहि पुरा महिअं३५ झावणया अग्गिसक्कारो॥२६॥ भा०-सो जिणदेहाईणं देवेहि कओ 36 चिआसु थूभाई 37 / सद्दो अरुण्णसद्दो लोगोऽवितओतहा पगओ 38 // 27 // भा०- छेलावणमुक्किट्ठाइ बालकीलावणं व सेंटाई 39 / इंखिणिआइरुअंवा पुच्छा पुण किं कहं कलं? // 28 // भा०- अहव निमित्ताईणंसुहसइआइ सुहदुक्खपुच्छा वा 40 / इच्चेवमाइ पाएणुप्पन्नं उसभकालंमि // 29 // भा०- किंचिच्च (त्थ) भरहकाले कुलगरकालेऽवि किंचि उप्पन्नं / पहुणा य देसिआइंसव्वकलासिप्पकम्माई॥३०॥ एताश्च स्पष्टत्वात् प्रायो द्वारगाथाव्याख्यान एव च व्याख्यातत्वात् न प्रतन्यन्ते॥ नि०- उसभचरिआहिगारे सवेसिं जिणवराण सामण्णं / संबोहणाइ वुत्तुंवुच्छं पत्तेअमुसभस्स // 208 // ऋषभचरिताधिकारे सर्वेषां अजितादीनां जिनवराणां सामान्यं साधारणं संबोधनादि, आदिशब्दात् परित्यागादिपरिग्रहः, वक्तुं किं?, वक्ष्यति नियुक्तिकारः प्रत्येकं केवलस्य ऋषभस्य वक्तव्यतामिति गाथार्थः // 208 // नि०-संबोहण 1 परिच्चाए 2, पत्तेअं३ उवहिंमि अ४ / अन्नलिंगे कुलिंगे अ५, गामायार 6 परीसहे 7 // 209 // नि०-जीवोवलंभ 8 सुयलंभे 9, पच्चक्खाणे 10 असंजमे 11 // छउमत्थ 12 तवोकम्मे 13, उप्पाया नाण 14 संगहे 15 // 210 // 0.3 उपोद्घातनियुक्तिः, 0.3.2 द्वितीयद्वारम्, वीरजिनादिवक्तव्यताः। भाष्यः 22-30 नियुक्तिः 208-211 जिनसंबोधनादि (21) द्वाराणि। // 234 //