________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 2 // 563 // | श्रुतस्कन्धः२ द्वितीयमध्ययनं | क्रियास्थानम्, | सूत्रम् 18 (653) अनर्थदण्डः अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए ण्हारुणिए अट्ठीए अट्ठिमंजाए णो हिंसिंसु मेत्ति णो हिंसंति मेत्ति णो हिंसिस्संति मेत्ति णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवूहणताए णो समणमाहणवत्तणाहेउं णो तस्स सरीरगस्स किंचि विप्परियादित्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे // से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तंजहा- इक्कडाइ वा कडिणाइ वा जंतुगाइ वा परगा इवा मोक्खाइ वा तणा इवा कुसा इ वा कुच्छगा इ वा पव्वगाइ वा पलाला इवा, तेणोपुत्तपोसणाए णोपसुपोसणाए णो अगारपडिवूहणयाए णोसमणमाहणपोसणयाएणो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरियाइत्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे / / से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा तणाइंऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति अण्णेणवि अगणिकायं णिसिरावेति अण्णंपि अगणिकायं णिसिरितं समणुजाणइ अणट्ठादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजन्ति आहिज्जइ,दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए। सूत्रम् 18 // // 653 // ) अथापरं द्वितीयं दण्डसमादानमनर्थदण्डप्रत्ययिकमित्यभिधीयते, तदधुना व्याख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषो निर्निमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनो हिनस्ति, तदेव दर्शयितुमाह- जे इमे इत्यादि, ये केचन अमी संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्षा बस्तादयः तथापरं (मु०)। // 563 //