________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 739 // श्रुतस्कन्धः२ षष्ठमध्ययनं आईक्रीयम्, सूत्रम् 37-42 (772-777) आई कस्योत्तरः कल्पत एतदिति, तदसाध्विति स्थितम् // 35 // 770 // अन्यदपि भिक्षुकोक्तमार्द्रककुमारोऽनूद्य दूषयितुमाह- सिणायगाणं तु इत्यादि,स्नातकानां बोधिसत्त्वकल्पानां भिक्षूणां नित्यं यः सहस्रद्वयं भोजयेदित्युक्तं प्राक्तद्दूषयति-असंयतःसन्रुधिरक्लिन्नपाणिरनार्य इव गहाँ निन्दा जुगुप्सापदवीं साधुजनानामिहलोक एव निश्चयेन गच्छति परलोके चानार्यगम्यां गतिं यातीति॥ 36 // 771 // एवं तावत्सावद्यानुष्ठानानुमन्तॄणामपात्रभूतानां यद्दानं तत्कर्मबन्धायेत्युक्तम्, किंचान्यत् थूलं उरन्भं इह मारियाणं, उद्दिट्ठभत्तं च पगप्पएत्ता / तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं / / सूत्रम् 37 // ( // 772 // ) तंभुंजमाणा पिसितं पभूतं, णो उवलिप्पामो वयं रएणं / इच्चेवमाहंसु अणज्जधम्मा, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा // सूत्रम् 38 // ( // 773) जे याविभुंजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा। मणं न एयं कुसला करेंती, वायावी एसा वुइया उ मिच्छा // सूत्रम् 39 // ( // 774 // ) सव्वेसि जीवाण दयट्ठयाए, सावज्जदोसं परिवजयंता / तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिट्ठभत्तं परिवजयंति // सूत्रम् 40 // ( // 775 // ) भूयाभिसंकाएँ दुगुंछमाणा, सव्वेसि पाणाण निहाय दंडं / तम्हा ण भुंजंति तहप्पगारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥सूत्रम् 41 // ( // 776 // ) निग्गंथधम्ममि इमं समाहिं, अस्सिं सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा / बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अच्चत्थतं (ओ) पाउणती सिलोग। सूत्रम् 42 // ( // 777 // )