________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्ति श्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 449 // श्रुतस्कन्धः१ चतुर्दशमध्ययनं ग्रन्थः , सूत्रम् 13-16 (592-595) निर्गन्थानां गुणा: अस्मिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा- गेहमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डज्झमाणमि। जो बोहेइ सुयंत सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥जह वा विससंजुत्तं भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स / जोवि सदोसं साहइ सो तस्स जणो परमबंधू // 2 // // 11 // 590 // अयमपरः सूत्रेणैव दृष्टान्तोऽभिधीयते- यथा हि सजलजलधराच्छादितबहलान्धकारायांरात्रौ नेता नायकोऽटव्यादौस्वभ्यस्तप्रदेशोऽपि मार्ग पन्थानमन्धकारावृतत्वात्स्वहस्तादिकमपश्यन्नजानाति-नसम्यकपरिच्छिनत्ति। स एव प्रणेता सूर्यस्य आदित्यस्याभ्युद्गमेनापनीते तमसि प्रकाशिते दिक्चक्रे सम्यगाविर्भूते पाषाणदरीनिम्नोन्नतादिके मार्ग जानाति-विवक्षितप्रदेशप्राप पन्थानमभिव्यक्तचक्षुः परिच्छिनत्ति-दोषगुणविचारणतः सम्यगवगच्छतीति // 12 // 591 // एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्टान्तिकमधिकृत्याह____ एवं तु सेहेवि अपुट्ठधम्मे, धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे।से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासति चक्खुणेव / / सूत्रम् 13 // // 592 // ) ___ उई अहेयं तिरियं दिसासु, तसा यजे थावरा जे य पाणा। सया जए तेसुपरिव्वएज्जा, मणप्पओसं अविकंपमाणे॥सूत्रम् 14 // ( // 593 // ) ___ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं / तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियंसमाहिं। सूत्रम् 15 // // 594 // ) 0 गेहेऽग्निज्वालाकुले यथा नाम दह्यमाने / यो बोधयति सुप्तं स तस्य जनः परमबान्धवः // 1 // यथा वा विषसंयुक्तं भक्तं स्निग्धं इह भोक्तुकामस्य योऽपि सदोष साधयति स तस्य परमबन्धुर्जनः॥२॥००मप्यपश्यन्न (प्र०)। 0 दरि० (मु०)। // 449 //