________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्ति| श्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्ध:१ // 441 // श्रुतस्कन्धः। चतुर्दशमध्ययन ग्रन्थः , सूत्रम् 1-4 (580-583) निर्गन्थानां गुणा: नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यम्, तच्चेदं गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरंवसेज्जा / ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय विप्पमायं न कुजा॥सूत्रम् 1 // ( // 580 // ) जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पविउंमन्नमाणं / तमचाइयंतरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अव्वत्तगमहरेजा।सूत्रम् // // 581 // ) एवं तु सेहंपि अपुट्टधम्म, निस्सारियं वुसिमं मन्नमाणा। दियस्स छायं व अपत्तजायं, हरिसुणं पावधम्मा अणेगे। सूत्रम् 3 // ( // 582 // ) ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिए णंतकरिति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे बहिया आसुपन्नो॥ सूत्रम् 4 // ( // 583 // ) इह प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोत्थितो ग्रथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थो- धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादि कस्तं विहाय त्यक्त्वा प्रव्रजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षां कुर्वाणः- सम्यगासेवमानः सुष्ठ शोभनं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्यं वसेत् तिष्ठेत्, यदिवा सुब्रह्मचर्य मिति संयमस्तद् आवसेत्- तं सम्यक् कुर्यात्, आचार्यान्तिके यावज्जीवंवसमानो यावदभ्युद्यतविहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्यवचनस्यावपातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी- वचननिर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, विनीयते- अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठ शिक्षेद्-विदध्यात् ग्रहणासेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति / तथा यः छेको निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमाद न ©दादि विहाय' (मु०)। // 441 //