________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्ध:१ / / 433 // श्रुतस्कन्धः१ त्रयोदशमध्ययन याथातथ्यम्, सूत्रम् 17-20 (573-576) सदसत्तोः धर्माधर्माः सन्त उच्चां- मोक्षाख्यां सर्वोत्तमांवा गतिं व्रजन्ति- गच्छन्ति, चशब्दात्पञ्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा व्रजन्ति, अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम्॥१६॥५७२॥ किञ्च भिक्खू मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे, गामंच णगरंच अणुप्पविस्सा। से एसणंजाणमणेसणंच, अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे / / सूत्रम् 17 // / // 573 // ) ___ अरति रतिंच अभिभूय भिक्खू, बहूजणे वा तह एगचारी / एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गतिरागती य॥सूत्रम् 18 // ( // 574 // ) सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोचा, भासेज धम्मं हिययं पयाणं / जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा। सूत्रम् 19 // ( // 575 // ) केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुइपि गच्छेन्ज असद्दहाणे। आउस्स कालाइयारं वघाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अढे // सूत्रम् 20 // // 576 // ) स एवं मदस्थानरहितो भिक्षणशीलो भिक्षुः, तं विशिनष्टि- मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावादर्चा- तनुः शरीरं यस्य स मृतार्चः यदिवा मोदनं मुत् तद्भूता शोभनाऽर्चा-पद्मादिका लेश्या यस्य स भवति मुदर्चः-प्रशस्तलेश्यः, तथा दृष्टःअवगतो यथावस्थितो धर्मः- श्रुतचारित्राख्यो येन स तथा, स चैवंभूतः क्वचिदवसरे ग्रामं नगरमन्यद्वा मडम्बादिकमनुप्रविश्य भिक्षार्थमसावुत्तमधृतिसंहननोपपन्नः सन्नेषणां- गवेषणग्रहणैषणादिकां जानन् सम्यगवगच्छन्ननेषणां च- उद्गमदोषादिकां (r) कल्पेषु कल्पातीतेषु वा (प्र०)। 9 स एव (प्र०)। // 433 //