________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्ध:१ // 430 // श्रुतस्कन्धः 1 त्रयोदशमध्ययन याथातथ्यम्, सूत्रम् 13-16 (569-572) सदसत्तो: धर्माधर्माः कर्मक्षयकारी न भवतीति भावः / देशमोचना तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्षणमुपजायत इति // 11 // 567 // पुनरप्यभिमानदोषाविर्भावनायाह-बाहोनार्थेन निष्किञ्चनोऽपिभिक्षणशीलो भिक्षुः- परदत्तभोजी तथा सुष्ठ रूक्षं- अन्तप्रान्तं वल्लचणकादि तेन जीवितुं- प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरूक्षजीवी, एवंभूतोऽपि यः कश्चिद्गौरवप्रियो भवति तथा श्लोककामी आत्मश्लाघाभिलाषी भवति, स चैवंभूतः परमार्थमबुध्यमान एतदेवाकिञ्चनत्वं सुरूक्षजीवित्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परतया आजीवं- आजीविकामात्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनः पुनः संसारकान्तारे विपर्यासं- जातिजरामरणरोगशोकोपद्रवमुपैतिगच्छति, तदुत्तरणायाभ्युद्यतोवा तत्रैव निमज्जतीत्ययं विपर्यास इति // 12 // 568 // यस्मादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्यपरिभाषिणां वा तस्मादमीभिः शिष्यगुणैर्भाव्यमित्याह जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए य / आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया परिहवेजा // सूत्रम् 13 // ( // 569 // ) एवंण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खुविउक्सेज्जा / अहवाऽविजे लाभमयावलित्ते, अन्नंजणं खिंसति बालपन्ने ।सूत्रम् 14 // // 570 // ) पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू। आजीवगंचेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से / / सूत्रम् 15 // // 571 // ) एयाइं मयाई विगंचि धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा। ते सव्वगोत्तावगया महेसी, उच्चं अगोत्तं च गतिं वयंति // सूत्रम् 16 // ( // 572 // ) भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् भिक्षुः साधुः, तथा सुष्ठ साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुंशीलमस्येत्यसौ // 430 //