________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 399 // श्रुतस्कन्ध:१ द्वादशमध्ययन समवसरणम्, सूत्रम् 13-16 (547-550) प्रवादचतुष्कं परतीर्थिक परिहारंच तथाहि-तत्र तीर्थकराहारकवा :सर्व एव कर्मबन्धाः सम्भाव्यन्त इति,तथा च महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानैर्जीवा नरकायुष्कं यावन्निवर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति, अथवा यथा यथा रागद्वेषादिवृद्धिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः, यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति / दुष्टमनोवाक्कायाभिवृद्धौ वा संसाराभिवृद्धिरवगन्तव्या, तदेवं संसारस्याभिवृद्धिर्भवति / यस्मिंश्च संसारे, प्रजायन्त इति प्रजाः जन्तवः, हे मानव!, मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशार्हत्वान्मानवग्रहणम्, सम्यग्नारकतिर्यङ्नरामरभेदेन प्रगाढाः प्रकर्षेण व्यवस्थिता इति // 12 // 546 // लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारेण तत्पर्यटनमाह जे रक्खसाया जमलोइयायाँ, जे वा सुरा गंधव्वा य काया। आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति // सूत्रम् 13 // ( // 547 // ) जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहिणं भवगहणं दुमोक्खं / जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति // सूत्रम् 14 // ( // 548 // ) न कम्मुणा कम्म खति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा / मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं॥ सूत्रम् 15 // ( // 549 // ) ते तीयउप्पन्नमणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाइं। णेतारो अन्नेसि अणन्नणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति // सूत्रम् 16 // ( // 550 // ) 0 वर्जाः (प्र०)। यथा च महा० (प्र०) 0 रक्खसा वा जमलोइया वा (मु०)। ||399 //