________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 1 // 349 // पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति // 19 // 491 // तपश्चरणोपायमधिकृत्याह- यथा क्षुद्रमृगा क्षुद्राटव्यपशवो हरिण- श्रुतस्कन्धः 1 जात्याद्याः चरन्तः अटव्यामटन्तः सर्वतो बिभ्यतः परिशङ्कमानाः सिंह व्याघ्रं वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहृत्य चरन्ति दशममध्ययनं समाधिः, विहरन्ति, एवं मेधावी मर्यादावान्, तुर्विशेषणे, सुतरां धर्मं समीक्ष्य पर्यालोच्य पापं कर्म असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाक्कायकर्मभिः। सूत्रम् 21-24 परिहत्य परि- समन्ताद्वजेत् संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापं- पापहेतुत्वात्सावधानुष्ठानं सिंहमिव मृगः (493-496)| स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत्- परित्यजेदिति // 20 // 492 // अपिच पापाकर्ता मुनिः ___संबुज्झमाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा / हिंसप्पसूयाइंदुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि // सूत्रम् 21 // ( // 493 // ) मुसंन बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं / सयं न कुज्जा न य कारवेजा, करंतमन्नंपि यणाणुजाणे ॥सूत्रम् 22 // ( // 494 // ) सुद्धे सिया जाएअन दूसएजा, अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने / धितिमं विमुक्केण य पूयणट्ठी, न सिलोयगामी य परिव्वएज्जा। सूत्रम् 23 // ( // 495 // ) निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी, कायं विउसेज्ज नियाणछिन्ने / णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेन्ज भिक्खू वलया विमुक्के। सूत्रम् 24 // ( // 496 // ) त्तिबेमि // इति समाहिनाम दसममज्झयणं समत्तं / / मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान्, प्रशंसायां मतुप, तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक्श्रुतचारित्राख्यं /