________________ श्रुतस्कन्धः१ नवममध्ययनं श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 325 // धर्म:, सूत्रम् 21-24 (457-460) आरम्भकामवतांन दुःखमोक्षः ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत ॥१७॥४५३॥किच उपानहौ-काष्ठपादुकेच तथा आतपादिनिवारणाय छत्रंतथा नालिका द्यूतक्रीडाविशेषस्तथा वालैः मयूरपिच्छैर्वा व्यजनकम्, तथा परेषां सम्बन्धिनीं क्रियामन्योऽन्यं- परस्परतोऽन्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पाद्यां चापर इति, च : समुच्चये, तदेतत्सर्वं विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति // 18 // 454 // तथा- उच्चारप्रस्रवणादिकां क्रियां हरितेषूपरि बीजेषु वा अस्थण्डिले वा मुनिःसाधुन कुर्यात्, तथा विकटेन विगतजीवेनाप्युदकेन संहृत्य अपनीय बीजानि हरितानि वा नाचमेत न निर्लेपनं कुर्यात्, किमुताविकटेनेतिभावः // 19 // 455 // किञ्च परस्य- गृहस्थस्यामत्रं- भाजनं परामत्रं तत्र पुरःकर्मपश्चात्कर्मभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भवाच्च अन्नं पानं च मुनिर्न कदाचिदपि भुञ्जीत, यदिवा- पतद्हधारिणश्छिद्रपाणे: पाणिपात्रं परपात्रम्, यदिवा-पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेर्जिनकल्पिकादेः पतगृहः परपात्रंतत्र संयमविराधनाभयान्न भुञ्जीत तथा परस्य-गृहस्थस्य वस्त्रं परवस्त्रंतत्साधुरचेलोऽपि सन् पश्चात्कर्मादिदोषभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भवाच्चन बिभृयात्, यदिवा-जिनकल्पिकादिकोऽचेलो भूत्वा सर्वमपि वस्त्रं परवस्त्रमितिकृत्वान बिभृयाद्, तदेतत्सर्वं परपात्रभोजनादिकं संयमविराधकत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति // 20 // 456 // तथा आसंदी पलियंके य, णिसिजं च गिहतरे / संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया।सूत्रम् 21 // // 457 // ) जसं कित्तिं सलोयं च, जाय वंदणपूयणा / सव्वलोयंसिजे कामा, तं विजं परिजाणिया॥सूत्रम् 22 // ( // 458 // ) जेणेहं णिव्वहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं / अणुप्पयाणिमन्नेसिं, तं विजं परिजाणिया॥सूत्रम् 23 // ( // 459 // ) एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी। अणंतनाणदंसी से, धम्मं देसितवंसुतं // सूत्रम् 24 // ( // 460 // ) // 325 //