________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 280 // श्रुतस्कन्धः१ सप्तममध्ययनं कुशीलपरिभाषा, सूत्रम् 7-10 (387-390) पृथ्व्यादिजीवानामारम्भः गृङ्ख्यादिश्च सश्रुतिक: समीक्ष्य धर्मं पापाड्डीनः पण्डितो नाग्निकार्य समारभते, स एव च परमार्थतः पण्डितो योऽग्निकायसमारम्भकृतात् पापानिवर्तत इति // 6 // 386 // कथमनिकायसमारम्भेणापरप्राणिवधो भवतीत्याशङ्कयाह पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति / संसेयया कट्ठसमस्सिया य, एते दहे अगणि समारभंते ॥सूत्रम् // ( // 387 // ) हरियाणि भूताणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई। जे छिंदती आयसुहं पडुच्च, पागब्भि पाणे बहुणं तिवाती॥ सूत्रम् 8 // ( // 388 // ) जातिंच वुट्टिच विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे / अहाहु से लोएँ अणज्जधम्मे, बीयाइ जे हिंसति आयसाते॥सूत्रम् // ( // 389 // ) गन्भाइ मिजंति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा / जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, (पाठांतरे पोरुसा य) चयंति ते आउखए पलीणा // सूत्रम् 10 // ( // 390 // ) न केवलं पृथिव्याश्रिता द्वीन्द्रियादयो जीवा यापि च पृथ्वी- मृल्लक्षणा असावपि जीवाः, तथा आपश्च- द्रवलक्षणा जीवास्तदाश्रिताश्च प्राणाः सम्पातिमाःशलभादयस्तत्र सम्पतन्ति, तथा संस्वेदजा: करीषादिष्विन्धनेषु घुणपिपीलिकाकृम्यादयः काष्ठाद्याश्रिताश्च ये केचन एतान् स्थावरजङ्गमान् प्राणिनः स दहेद्योऽग्निकार्य समारभेत, ततोऽग्निकायसमारम्भो महादोषायेति॥ 7 // 387 // एवं तावदग्निकायसमारम्भकास्तापसास्तथा पाकादनिवृत्ताः शाक्यादयश्चापदिष्टाः, साम्प्रतं ते चान्ये वनस्पतिसमारम्भादनिवृत्ताः परामृश्यन्ते इत्याह- हरितानिदुर्वाङ्करादीन्येतान्यप्याहारादेवृद्धिदर्शनात् भूतानि जीवाः तथा विलम्बकानीति // 280 //