________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्ध:१ // 230 // श्रुतस्कन्धः१ पञ्चममध्ययनं नरकविभक्तिः, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् 3-4 (302-303) नरकवेदना सिहाणिवहे। संसारोदहिवलयामुहमि दुक्खागरे "निरए॥१॥ पायक्कंतोरत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरगंडूसे / करवत्तुक्कत्तदुहाविरिक्कविविईण्णदेहद्धे // 2 // जंतंतरभिज्जंतुच्छलंतसंसद्दभरियदिसिविवरे / डझंतुप्फिडियसमुच्छलंतसीसट्ठिसंघाए॥३॥ मुक्कक्कंदकडाहुक्कढंत* दुक्कयकयंतकम्मते। सूलविभिन्नुक्खित्तुद्धदेहणिद्वैतपन्भारे॥ 4 // सबंधयारदुग्गंधबंधणायारदुद्धरकिलेसे। भिन्नकरचरणसंकररुहिरवसादग्गमप्पवहे॥५॥ गिद्धमुहणिद्दउक्खित्तबंधणोमुद्धकंविरकबधे / दढगहियतत्तसंडासयग्गविसमुक्खुडियजीहे॥६॥ तिक्खड्सग्गकड्डियकंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे। निमिसंतरंपि दुल्लहसोक्खेऽवक्खेवदुक्खंमि॥७॥ इय भीसणंमि णिरए पडंति जे विविह-सत्तवहनिरया। सच्चन्भट्ठा य नरा जयंमि कयपावसंघाया॥८॥इत्यादि // 3 // 302 // किञ्चान्यत्- तथा तीव्र अतिनिरनुकम्पं रौद्रपरिणामतया हिंसायां प्रवृत्तः, त्रस्यन्तीति त्रसाः-द्वीन्द्रियादयस्तान्, तथा स्थावरांश्च पृथिवीकायादीन् यः कश्चिन्महामोहोदयवर्ती हिनस्ति व्यापादयति आत्मसुखं प्रतीत्य स्वशरीरसुखकृते, नानाविधैरुपायैर्यः प्राणिनां लूषक उपमर्दकारी भवति, तथा- अदत्तमपहर्तुं शीलमस्यासावदत्तहारी- परद्रव्यापहारकः तथा न शिक्षते नाभ्यस्यति नादत्ते सेयवियस्स त्ति सेवनीयस्यात्म-हितैषिणा अविध्यातशिखिशिखानिवहे / संसारोदधिवलयामुखे दुःखाकरे निरये / / 1 / / पादाक्रान्तोरस्थलमुखकुहरोच्छलित-रुधिरगण्डूषे करपत्रोत्कृत्तद्विधीभागविदीर्णदेहार्धे // 2 // यन्त्रान्तर्भिद्यदुच्छलत्संशब्दभृतदिग्विवरे / दह्यमानोत्स्फिटितोच्छलच्छीर्षास्थिसंघाते // 3 // मुक्ताक्रन्दकटाहोत्कट्यमानदुष्कृतकृतान्तकौन्ते / शूलविभिन्नोत्क्षिप्तोर्ध्वदेहनिष्ठप्राग्भारे / / 4 // शब्दान्धकारदुर्गन्धबन्धनागारदुर्धरक्लेशे / भिन्नकरचरणसंकररुधिरवसादुर्गमप्रवाहे // 5 // गृध्रमुखनिर्दयोत्क्षिप्त-8 बन्धनोन्मूर्धक्रन्दत्कबन्धे / दृढगृहीततप्तसंदशकाग्रविषमोत्पाटितजिह्वे / / 6 / तीक्ष्णाङ्कुशाग्रकर्षितकण्टकवृक्षाग्रजर्जरशरीरे / निमेषान्तरमपि दुर्लभसौख्येऽव्याक्षेपदुःखे / / 7 // इति भीषणे निरये पतन्ति विविधसत्त्ववधनिरताः। सत्यभ्रष्टाश्च नरा जगति कृतपापसंघाताः॥ 8 // * महे (प्र०) वहे (मु०)।* नु० (प्र०)। * देहणिन्नतं (प्र०)देहणितंत (प्र०)। . 0 बंधणे (प्र०)। 5 0 कंदिर० (प्र०)। * अधोमुखक्रन्दन् कबन्धो यत्र वि० प्र०। // 230 //