________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 204 // श्रुतस्कन्धः१ चतुर्थमध्ययनं स्त्रीपरिज्ञा, प्रथमोद्देशकः सूत्रम् 27-31 (273-277) चारित्रस्य स्खलना तत्परित्यागश्च विलीयते द्रवति, एवं योषितां संवासे सान्निध्ये विद्वानपि आस्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धर्मानुष्ठानं प्रति विषीदेत शीतलविहारी भवेदिति // 26 // 272 // एवं तावत्स्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्श्य तत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाह जतुकुंभेजोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति // सूत्रम् 27 // ( // 273 // ) कुव्वंति पावगं कम्मं, पुट्ठा वेगेवमाहिंसु / नोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणी ममेसत्ति // सूत्रम् 28 // ( // 274 / ) यथा जातुषः कुम्भो ज्योतिषा अग्निनोपगूढः- समालिङ्गितोऽभितप्तोऽग्निनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रं नाशमुपयाति द्रवीभूय विनश्यति, एवं स्त्रीभिः सार्धं संवसनेन परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति, सर्वथा जातुषकुम्भवत् व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराद् भ्रश्यन्ति // 27 // 273 // अपिच- तासु संसाराभिष्वङ्गिणीष्वभिषक्ता अवधीरितैहिकामुष्मिकापायाः पापं कर्म मैथुनासेवनादिकं कुर्वन्ति विदधति, परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानाद् एके केचनोत्कटमोहा आचार्यादिना चोद्यमाना एवमाहुः वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा- नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतदकार्यं पापोपादानभूतं करिष्यामि, ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वं अड्रेशायिनी आसीत्, तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति, न पुनरहं विदितसंसारस्वभावःप्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्गं विधास्य इति // 28 // 274 // किञ्च बालस्स मंदयं बीयं, जंच कडं अवजाणई भुजो। दुगुणं करेइसे पावं, पूयणकामो विसनेसी // सूत्रम् 29 // ( // 275 // ) संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु / वत्थं च ताइ! पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गाहे // सूत्रम् 30 // // 276 // ) णीवारमेवं बुज्झेजा, णो इच्छेअगारमागंतुं / बद्धे विसयपासेहि, मोहमावज्जइ पुणो मंदे। सूत्रम् 31 // ( // 277 // ) (r) ममैषिका (प्र०)। ©शयिनी (मु०)। 0 0 मावदृति पाठान्तरसंभवः।