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________________ श्रीस्थानाङ्ग श्रीअभय० वृत्तियुतम् भाग-२ // 785 // वातितसंपया हुत्था १॥सूत्रम् 653 // __ अट्ठविधा वाणमंतरा देवा पं० तं०- पिसाया भूता जक्खा रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा महोरगा गंधव्वा 2 एतेसिणं अट्ठण्हं वाणमंतरदेवाणं अट्ठचेतितरुक्खापं० २०-कलंबो अपिसायाणं, वडोजक्खाणचेतितं / तुलसीभूयाणं भवे, रक्खसाणंच कंडओ॥ १॥असोओ किन्नराणंच, किंपुरिसाण यचंपतो। नागरुक्खो भुयंगाणं, गंधव्वाण य तेंदुओ॥२॥३॥सूत्रम् 654 // इमीसे रयणप्पभाते पुढवीते बहुसमरमणिज्जाओभूमिभागाओ अट्ठजोयणसते उड्डबाहाते सूरविमाणेचारंचरति ४॥सूत्रम् 655 // अट्ठ नक्खत्ता चंदेणंसद्धिं पमइंजोगंजोतेंतितं०-कत्तिता रोहिणी पुणव्वसूमहा चित्ता विस्साहा अणुराधा जेट्ठा 5 // सूत्रम् 656 // जंबुद्दीवस्सणं दीवस्स दारा अट्ठजोयणाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ता१सव्वेसिंपि दीवसमुद्दाणंदारा अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता २॥सूत्रम् 657 // पुरिसवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स जहन्नेणं अट्ठसंवच्छराइंबंधठिती पन्नत्ता 1 जसोकित्तीनामएणं कम्मस्स जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ताई बंधठिती पं० 2 उच्चगोयस्सणं कम्मस्स एवं चेव ३॥सूत्रम् 658 // तेइंदियाणमट्ठ जातीकुलकोडीजोणीपमुहसत सहस्सा पं०॥ सूत्रम् 659 // जीवाणं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसुवा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं०- पढमसमयनेरतितनिव्वत्तिते जाव अपढमसमयदेवनिव्वत्तिते, एवं चिणउवचिण जाव निजरा चेव अट्ठपतेसिताखंधा अणंता पण्णत्ता, अट्ठपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव अट्ठगुणलुक्खापोग्गला अणंता पण्णत्ता ॥सूत्रम् 660 // अट्ठमं ठाणं सम्मत्तं // अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं // सुगमम्, नवरमनुत्तरेषु-विजयादिविमानेषूपपातो येषामस्ति तेऽनुत्तरोपपातिकास्तेषांसाधूनामिति गम्यते, तथा गतिर्देव अष्टममध्ययन अष्टस्थानम्, सूत्रम् 653-660 वीरानुत्तरोपपातिकसम्पत्-व्यन्तरभेद-चैत्यवृक्षाः, सूर्यविमानचाराबाधा, प्रमर्दयोगनक्षत्राणि, द्वीप-समुद्रद्वारोच्चत्वम्, पुरुष-वेदयश:- कीयुचैर्गोत्राणां जघन्या स्थितिः, त्रीन्द्रियकुलकोटयः, पुदलाना चयनादि, अष्टप्रदेशिकादिच // 785 //
SR No.600433
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandrasguptasuri
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sthanang
File Size33 MB
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