________________ श्रीआचाराङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 267 // गणो नरकभवादिकं दुःखमवाप्नोतीति गाथार्थः॥ 212 // पुनरपि व्यतिरेकदृष्टान्तद्वारेणोपदेशदानायाह | श्रुतस्कन्ध:१ नि०- एसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसुं। अणुहवइ जह सचेओ सुहाइंसमणोऽवि तह चेव // 213 // तृतीयमध्ययनं शीतोष्णीयं, एष एव पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकाविवेकजनितः, तथाहि- सचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनुभवति, | प्रथमोद्देशक: पथिविषये चसापायनिरपायविवेकज्ञः, आदिग्रहणादन्यस्मिन्वा दस्युभयादौ समुपस्थिते सति, यथा विवेकी सुखेनैव तमपायं नियुक्ति: 213 परिहरन् सुखभाग् भवति, एवं श्रमणोऽपि भावतः सदा विवेकित्वाज्जाग्रदवस्थामनुभवन् समस्तकल्याणास्पदीभवति / अत्र च। | मुनीनां जागरणम् सुप्तासुप्ताधिकारगाथाः जागरह णरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्डए बुद्धी। जो सुअइ न सो धण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो // 1 // सुअइ सूत्रम् 107 सुअंतस्स सुअं संकियखलियं भवे पमत्तस्स / जागरमाणस्स सुअं थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स॥२॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह मुनिस्वरूपम् निद्दया / न वेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दयालुया // 3 // जागरिआ धम्मीणं आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिवभगिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए॥ 4 // सुयइ य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभू। होहिइ गोणब्भूओ नट्ठमि सुए अमयभूए॥ 5 // तदेवं दर्शनावरणीयकर्मविपाकोदयेन क्वचित्स्वपन्नपि यः संविग्नो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाजाग्रदवस्थ एवेति // 213 // ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्भवन्ति, अज्ञानं च महादुःखम्, दुःखं च जन्तूनामहितायेति दर्शयति लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्थ सत्थोवरए, जस्सिमे सद्दा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति // सूत्रम् 107 // // 267 // 0जागृत नरा नित्यं जाग्रतो वर्धते बुद्धिः / यः स्वपिति न स धन्यः यो जागर्ति स सदा धन्यः॥१॥स्वपिति स्वपतः श्रुतं शङ्कितस्खलितं भवेत्प्रमत्तस्य / जागरतः श्रुतं स्थिरपरिचितमप्रमत्तस्य / / 2 // नालस्येन समं सौख्यं न विद्या सह निद्रया। न वैराग्य प्रमादेन नारम्भेण दयालुता / / 3 / / जाग्रत्ता धर्मिणां अधर्मिणां तु सुप्तता श्रेयसी। वत्साधिपभगिन्या अकथयत् जिनो जयन्त्याः // 4 // स्वपिति चाजगरभूतः श्रुतमपि तस्य नश्यत्यमृतभूतम् / भविष्यति गोभूतो नष्टे श्रुतेऽमृतभूते // 5 // 3