________________ चरित्रम् श्री सदैववत्स अधुना वर्तते रात्रि स्तत्र वाच्यं न कस्यचित् / / रहस्यं ज्ञानिभिः प्रोक्तमिति नीतावपि स्थितम् // 28 // 41 दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं रात्रौ नैवच नैवच // संचरन्ति महाधूर्ता वटे वररुचिर्यथा // 289 // स्त्रिया प्रोक्तं वचः श्रुत्वा कुमारोऽवददन्मनाः॥ भो सुंदरि कथं चैतत् सा प्राहाथ समुत्सुका // 290 // उज्जयिन्यां महापुर्यां विक्रमार्को नराधिपः // सभा तस्य महारम्या प्राज्ञैः पंचशतै वृता // 291 // सभागारभूतोऽपि वररुचिः सुपंडितः // यश्चतुर्दशविद्यानां पात्रमासीन्महामतिः // 292 // - राज्ञः कीडाशुकोऽप्यासीत् विदग्धमुखमंडनः एकदान्यनृपस्याग्रे नृपेण प्रेषितः स च // 293 // | लेखदानाय कीरः सोऽप्यगच्छत् गगनाध्वना // गत्वाथ कृतकार्योऽसौ परावृतः ततः स्थलात् // 294 // अध्वनि पद्मिनीपुरे कस्यापीभ्यस्य सद्गृहे // वेदिकाभित्तिभागे स विशश्राम श्रमाकुलः // 295 // रंभाकारं च तत्रासौ कन्यावृन्दं व्यलोकत // तन्मध्यादेकया प्रोक्तं भोसख्योऽयंशुकः शुभः // 296 // | नृपस्य विक्रमार्कस्य जीवितादपि वल्लभः // अर्थतो नामतश्चास्ति विदग्धमुखमंडनः // 297 // तत्सखिभिस्ततः पृष्टं भोसखि त्वं वदाधुना // वृत्तांतं तं कथं वेत्सि हर्षपूर्णाऽवदत्तदा // 298 // - उज्जयिनीपुरीमध्ये मातुलस्य गृहं मम // प्रसंगेन शुको दृष्टो प्रागसौ तत्स्थया मया // 299 //