________________ कुरुते नादरं कोऽपि विनाडंबरमत्र वै // आडंबराणिं पूज्यन्ते सर्वत्र न गुणा जने // 230 // सभायां व्यवहारेषु शत्रुमध्ये जनेषु च // आडंबरेण पूज्यत्वं स्त्रीषु राजकुलेषु च // 231 // भवेत् परिभवस्थानं पुमानाडंबरं विना // विशेषाडंबरस्तेन कर्तव्यः सुधिया सदा // 232 // वपुर्वचन वस्त्राणि विद्या विनय वैभवाः // वकारषट्रहीनो हि नरो नार्हति गौरवम् // 233 // श्रुत्वा सदय वत्सस्तत् प्राह चेत्थं नराधिपम् // कदापि वाग्विलासोयं चेतसि मे न रोचते // 23 // एकोऽहमसहायोऽहं कृशोऽहमपरिच्छदः // स्वप्नेऽप्येवंविधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते // 235 // RE राजन् मम सहायस्य किमपि न प्रयोजनम् // सावलिंगासमायुक्तश्चचालासौ ततः स्थलात् // 236 // KE अथ मार्गे समागच्छन् शब्दान् शुश्राव स कचित् // अहो कैते मनुष्याणां श्रूयन्तेऽतिमहारथाः॥२३७॥ विचिन्त्येति चलन् यावत् विलोकयति सर्वतः // तेनैका कंदरा दृष्टा तावत् क्वापि नगोपरि // 238 // तत्र शब्दानुसारेण सभार्यः सदयो गतः // यावदेकमना भूत्वा कर्ण दत्त्वा शृणोत्यसौ // 239 // KE कंदराया मुखे तत्र प्रौढशिलाऽस्ति सुस्थिता // तेन कोलाहलः श्रुतो जनानां तदधस्तले // 24 // गच्छतांतः स्वहस्ताभ्यां सा शिलोत्पाटिता यदा // तत्स्थले कंदरा दृष्टा प्रौढसौधसमा तदा / / 241 //