________________ रिम् 38 श्री सदैववत्स - मुनिदानक्षणे किंचिदुद्वेगकरणेन तत् // निर्मानुषे समुद्रान्तीपे तन्मोचनं ह्यभूत् // 220 // - त्वद्वियोगजलद्विपोल्लालनादिभवं तया // दुःखं सोढमतः प्रोक्तं भुज्यते पूर्वकर्मजम् // 221 // निजपूर्वभवस्यैवं श्रुत्वा वृत्तांतमेव तत् // समुत्पन्नं तयोर्जातिस्मरणशान मद्भुतम् // 222 // | गुरोर्मुखारतावथ देवधर्म स्वीकृत्य चाराधतया स्वकाले // विमान मारुह्यदिवं प्रयातौ प्रयास्यतो मोक्षमपिक्रमेण // 223 // | संसारदावानलमेघतुल्या मेवं सकर्णस्पृहणीयवर्णाम् // श्रुत्वा गुरूक्तां सदयः कुमारः सुदेशनां श्रावकधर्ममाप // 224 // ततः सर्वे गुरुं नत्वा जग्मुः स्वस्वगृहेषु च // राजा सदयवत्साय स्वराज्यं दातु मिच्छति // 225 // न गृह्णाति परं चासौ कुमारो हि महामतिः // अथैकदा समुत्साही राजानं प्रत्युवाच ह // 226 // पर्यटन महं कर्तुं राजनिच्छामि सांप्रतम् // तेनाधुना सुतेयं ते सुखेनात्रैव तिष्ठतु // 227 // KE अवस्थानं मम क्वापि भविष्यति यदा तदा // एना माकारयिष्यामि तत्रेत्युक्तवा चचाल ह // 228 // विदेशेऽथ चलंतं तं कुमार मुक्तवान्नृपः // व्रज त्वमश्वरथ्यादि महाडम्बर संयुतः // 229 //