________________ मतिसागरनामाथ गुरुरप्याह तं प्रति // जो मृगांक स्थिरो भूत्वा तव पूर्वभवं शृणु // 208 // पुरा धन्यपुरे ग्रामे एको वीरांगदाभिधः // क्षत्रियोऽतिदरिद्री च ह्यासीद वीरमतीपतिः // 209 // अथ नामान्तरं गच्छन्नेकदा सोऽतिनिर्धनः // वटवृक्षजटां दृष्ट्वा रक्तवर्णा स्वबुद्धितः // 20 // K मत्वा स्वर्णनिधिं तत्र चखान तदधस्तलम् // परं तेन ततो लब्धः केवलं स्वर्णटंककः // 211 // Ke शेषास्त्वंगारका दृष्टा मनसि चिन्तितं तदा // चातकोऽपि महावृष्टौ लभते नाधिकं जलम् // 212 // E स्वर्णटंकं गृहीत्वासौ ततः स्वगृहमागतः // तदिने तेन शाल्यन्नं कारितं घृतमिश्रितम् // 213 // उपविशत्यसौ यावद् भोजनाय गृहं प्रति // तावत्तत्र समायातो जयदत्तो महामुनिः // 214 // सच मासोपवास्यासी दाहाराय समुत्सुकः // वीरांगदेन तं दृष्ट्वा भक्त्याथ पूजितो बहु // 215 // भावनापूर्वकं तस्मै परमान्नं समर्पितम् // तदनु मोदयामास दृष्ट्वा वीरमती सती // 216 // / | अपत्यार्थ परं किंचिदपि नोद्धरितं मया // इति स्वमानसे कृत्वा किञ्चिदुद्वेगमादधौ // 217 // एवं ताभ्या मपि द्वाभ्यां सुपात्रदानतस्तदा // मनुष्यभवसंबन्धि भोगफलमुपार्जितम् // 18 // ततो मृत्वा मृगांकोऽभूः जीवो वीरांगदस्य यः // इयं पद्मावती भार्या बभूव वीरमत्यपि // 219 //