________________ मृगांकः सहसांकं च विज्ञपयति भोप्रभो // द्वित्रिगुणात् शुल्कदानात् मुक्तात्मानं कुरुष्व माम् // 16 // K परं न मन्यते सोऽपि प्रत्युत भापयत्यथ // जीवन्तं त्वां न मुञ्चामि शपथेन वदाम्यहम् // 161 // Ka तहृदयगतं भाव मजानन्नतिभीस्कः // वदति मम सर्वस्वं गृहीत्वा मुञ्च मामितः // 162 // तेनैवं प्रार्थितः सोऽपि कमप्येकं न मुक्तवान् // ततश्चिन्तापराः सर्वे कर्तव्यमूढतां ययुः // 163 // सततं सहसांकस्तु मृगांकादीन् समादरात् // संतोषयति सुस्नेहात् भोजनाच्छादनादिना // 164 // सर्वेषां सुखशय्यादीन खावासेऽकारयत् सुधीः // यथासुखं विहर्तव्य मित्युवाच प्रहर्षतः // 165 // एकदा सहसांकेन मृगांको निजसन्निधौ // शय्यायां शायितो रात्रौ वार्ताभिस्तोषितो बह॥१६॥ अर्थेवं महती रात्रि व्यतिता वार्तया तयोः // तत्प्रस्तावे मृगांकश्च सहसांकमुवाचह // 16 // अथास्माकं प्रकारेण केनाऽपि त्वत्समीपतः // भविष्यति नवा मोक्षो कृपां कृत्वा वदाधुना // 16 // सहसांकेन हास्येन प्रोक्तं पादतले मम // उद्वर्तयसि हस्ताभ्यां घृतं शेरमितं यदा // 169 // भविष्यति तदा मोक्षो नान्यथाकरणेन हि // मृगांकेनाऽपि तत्सर्व पारवश्याच स्वीकृतम् // 17 // K अथातो सहसकिस्य सुप्तस्य पादयोघृतम् // शेरमितं यदा लग्नः समुद्रर्तयितुं क्रमात् // 17 // reORTER