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________________ श्री सदैववत्स 34 चरित्रम् अवदत्सोऽपि हे स्वामिन् चतुःषष्टिः कलाः क्रमात् // स्त्रीणां च पुरुषाणां च द्वासप्ततिः कला अपि 124/ | वेम्यहं तत्वतः सर्वा नाज्ञातं किं जगत्यपि॥ तच्छ्रुत्वा नृपतिः प्राह भो अध्यापय मत्सुताम् // 125 // इति नृपाझ्या सोऽथ छन्दोलक्षणसंयुतं // शास्त्र मध्यापयामास सुता मल्पै दिनैरपि // 126 // अथोवाच नृपस्तुष्टः सहसांकं प्रति प्रभुः // भो विद्वन् दीयते यत्तत् सर्व स्तोकं भवत्कृते // 12 // तथापि त्वं गृहाणेदं देशग्रामादिकं स्वकम् // एवमुक्तोऽप्यसौ तस्मान्-न गृहणाति मनागपि // 128 // उक्तं पुनः पुना राज्ञा तद्ग्रहणाय सोऽवदत् एवं चेदाग्रहो राजन् शुल्कमण्डपिकां मुदा // 129 // यावद्वर्षत्रयं देहि संतुष्टोऽसि मयि प्रभो॥ ततो राज्ञापि सा दत्ता तस्मै लेखसमन्विता // 130 // इति लिखापितं तत्र सहसांकेन राजतः॥ द्रव्यं मण्डपिकाशुल्का दुत्पन्नं यावदेवतत् // 231 // सर्व महं गृहीष्यामि कस्याऽपि व्यवहारिणः॥ मदिच्छया च त्यक्ष्यामि शुल्कं सर्व मथापरम् // 132 // असत्यवादिनः सर्व गृहीष्यामि तथा धनम् // राझा तद्विषये रावा श्रोतव्या नहि कस्यचित् // 133 // एवं विलिख्य तत्सर्व राज्ञा तस्मै समर्पितम् / अधिकृत्यं हि शुद्धकस्य यावद्वर्षत्रयं भवेत् // 134 // अथैवं शुल्कद्रव्यस्य ग्रहणेन महाधनी // संजातः स्तोककालेन सुपरिजनसंयुतः // 135 //
SR No.600423
Book TitleSadaivvatsakumar Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar, Manishankar Chaganlal Shastri
PublisherRatilal Keshavlal
Publication Year1932
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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