________________ तृतीयं लोचनं ज्ञानं द्वितीयो हि दिवाकरः // अर्पिता रागतस्तस्यै वै नवतिः कपर्दकाः // 579 // सा मुदिता तु तद्रव्यं बद्धवा वस्त्रांचले तदा // गृहीत्वा तच्च पाठार्थ लेखशालां पुनर्गता // 1 // स्थापयित्वा तु तत् क्वापि हस्तलेखं लिलेख सा // मृगांकेन च तद् दृष्टं गृहीतं पूर्वभावतः॥२॥ छोटयित्वा कपर्दास्तान् गृहीत्वाऽतिप्रहर्षतः // तामज्ञाप्य च तेनैव ह्यानीतं भक्ष्यमुत्तमम् // 3 // भक्षितं तत् सुखं ताभ्यां पद्मावत्या ततःक्षणे // संभालिताः कपर्दास्ते नैव दृष्टास्तया तदा // 4 // NS तया पृष्टो मृगांकश्च दृष्टा भवता कपर्दकाः // तेनोक्तं वै मया नीता दत्वा तान् सुखभाक्षिका // 5 // आवाभ्यां भक्षिता सा तु तच्छ्रुत्वा साऽवदत्ततः // अहमासंश्चिकीर्षुस्तै रलंकारान् मनोहरान् // 6 // मृगांकेन पुनः पृष्टं मुग्धे वद सविस्तरम् // कतिमूल्या जवन्त्येते तदा सोचे विचक्षणा // 7 // एकया बुद्धिमत्या वै स्त्रिया पञ्चकपर्दकैः // कृतानि स्नेहतो ब्रीहीमूटकानां शतान्यपि // 8 // विचारितं मृगांकन तद् द्रव्यं तु मया हृतम् // अतोऽस्य रोचते नैव गर्हितं कर्म मत्कृतम् // 9 // विमृश्यैवं नवानन्यानानीय स कपर्दकान् // दातुं तस्य यदा लग्नो नागृह्णात् सा तदा तु तान् // 10 // areAR