________________ श्री सदैववत्स चरित्रम् | मार्गयिष्यति स्वखङ्गं पतित्वा पादयोः खलु // तदा तदर्पयिष्यामो नान्यथेति विचारितम् // 527 // | हास्याय चिंतयित्वेति प्रातत्सस्य पार्श्वतः // गत्वा कृत्वा प्रणामं च कुमारमूचिरे तदा // 528 // | भोकुमारेन्द्र साकं त्व मस्माभिः सह खेलनम् // द्यूतस्य कुरु राजेन्द्र सोऽवददेवमस्तु तत् // 529 // पणमोचनकं किं तत् परमत्र भविष्यति // ते प्राहुस्तवखङ्गश्च ह्यस्माकं तु हिरण्यकम् // 530 // तदा वत्सेन स्वचित्ते चितितं नृपपुत्रकाः // हास्याय शालका नूनमागता मे समीपतः // 531 // भाव्यते मे जयो भावी ह्येते जिताः सुवर्णकम् // नार्पयिष्यं स्तेषां तु हास्यमेव भविष्यति // 532 // हस्तगतं हिरण्यं मे इति ध्यात्वा कुमारकः // तेन तान् प्रत्यवक् शूरो नृपपुत्राः करोमि भोः॥५३३।। यूयं स्वर्णं च मे पार्श्वे धीरा अत्रैव मुञ्चत // तथाकृते ततस्तैश्च देवीवरप्रभावतः // 534 // द्यूते तेषां समीपाच्च सदयवत्सधीमता // अर्जिता द्रव्यकोटि गृहीता तेन सत्वरम् // 535 // पक्वान्नं प्रीतिदानं च द्यूतद्रव्यं कुशोदकम् // सुभाषितं वचोर्थ च सद्यो गृह्णन्ति पंडिताः॥ 536 // स्वर्णेन तेन राजाथ सदयवत्सधीरधीः // प्रीणयतिस्म हर्षेण मार्गणानां गणं मुदा // 537 // | यैश्चदत्तानि दानानि पुनर्दातुं च ते क्षमाः // शुष्कोऽपि हि नदीमार्गः खन्यते सलिलार्थिभिः // 538 //