________________ चरित्रम् श्री सदैववत्स - पुनरपि तया चाथ कथिते स तु तत्र न // स्थितः किंतु चचालाग्रे सावलिंगा ततश्चसा // 464 // हे स्वामिन्नेव मेतां वै त्वदेकस्नेहतत्पराम् / / लीलावतीं त्वयाग्रे च ह्यवगणय्य युज्यते // 465 // न गंतुं च यतः सा वै त्वदेकमानसा परा // त्ववियोगेनात्मधात मंगीकरिष्यते खलु // 466 / / स्त्रीहत्यादषणं चेति महत्तव भविष्यति // लीलावत्यापि तत्राथ सदयवत्सधीमतः // 467 // आगमनस्य विज्ञप्त्य दासी च पितुरन्तिके निजैका पिता नूनं सत्वरं स्नेहनापतः / 468 // जनन्या धारिणीराझ्या स्वभर्तुरग्रतः खल्लु // प्रोक्तं च नाथ हे राजन् षण्मासावधिकः खलु // 469 // पूर्णाजातः सुताया वै कथमपि च यत्नतः // अथ तां यूयमत्रापि पश्चादानयत प्रभो // 470 // राजाह हे प्रिये सात्र स्वचिन्तितैकमानसा // दुढं जाता कथं पश्चादायास्यतीति हे प्रिये // 471 // गतियुगलकमेवोन्मत्तपुष्पाकराणां हतशिरसि निवासः क्ष्मातले वा निपातः // | विमलकुलभवानामंगनानां शरीरं निजपतिकरजो वा सेवते वा हुताशः // 472 // सदयवत्सराजा वै स्वचित्तेऽथ तया तथा // स्वभर्तृत्वेन बुद्धिमान् स्वीकृतोस्तीह वल्लभे // 473 // तस्य राज्ञश्च न प्राप्तौ शरणं वह्निरेव वै // तस्यास्तव सुतायाश्च भविष्यति न संशयः // 474 //