________________ सदयवत्सराजस्य रूपसौभाग्यसंयुजः // शौर्यगुणादिकस्याथ वर्णनस्य प्रपंचकम् // 43 // अश्रोषं च गुणागारं मनसि चिन्तितं मया // एवंविधगुणानां वै पात्रं यद्यस्ति धैर्यवान् // 435 // तदा स च वरो मेऽस्तु तत्प्राप्तिकृतनिश्चया // मयात्रास्थायि षण्मासा व्यतीताः सन्ति हे सखि // 436 // कामितसंप्रदं तीर्थ मस्याधिष्ठायकः खलु // देवः सर्वजनानां वै प्रपूरयति कामितम् // 437 // मया च सखि मे चित्ते निश्चयो विहितोऽस्ति वै // यदि षण्मासमध्ये स सदयवत्सराड् खल्लु // 438 // मिलिष्यति न चेत्तर्हि ह्यहं च काष्ठभक्षणम् // करिष्याम्यद्य षष्ठस्य मासस्यैकोनविंशकम् // 43 // दिनं जातं परं मे स स्वकर्मदोषतः खलु // मिलितो नैव राजेन्द्रः कोऽपराधः प्रभोः सखि // 440 // - समीहितं यन्न लभामहे वयं प्रभो न दोषस्तव कर्मणो मम // दिवाप्युलूको यदि नावलोकते तदा स दोषः कथमंशुमालिनः // 441 // // जहवि वसंतमासे ऋद्धिं पावंति सयलवणराई // ज न करीरे पत्तं ताकिं दोसो वसंतस्स // अतोऽद्यश्वो हि वाहं च सखि काष्ठस्य भक्षणम् ॥करिष्यामि स्वरूपं स्वं कथयित्वा च सा पुनः॥४४२॥ अपृच्छत् सावलिंगां वै नामास्ति तव किं सखि // भार्यासि कस्य चैवं त्वं सावलिंगाऽवदत्तदा // 443 //